Monday, 29 July 2019

आदर्शवाद (IDEALISM)

आदर्शवाद (Idealism) 

अर्थ एवं परिभाषा  :
आदर्शवाद की उत्पत्ति प्लेटो के अध्यात्मिक सिद्धांत से हुई हैI जिसका अर्थ है : अंतिम वास्तविकता या विचारवाद
विचारवाद को प्रत्ययवाद भी कहते हैंI प्लेटो का कहना है कि समस्त संसार नष्ट हो जाता है परंतु एक विचार है जो सदैव जीवित रहता हैI इसी आदर्शवाद को भारतीय दर्शन में इस तरह परिभाषित किया गया है
ृश्यते अनेन इति दर्शनम"
अर्थात जिसके द्वारा सत्य के दर्शन किए जाए उसे दर्शन कहते हैंI भारतीय दार्शनिकों का विश्वास है कि यह संसार नश्वर है मन की अभिव्यक्ति का साकार रूप है और परिवर्तनशील है जबकि सत्य वास्तविक है शाश्वत है और सदैव रहने वाला है।


परिभाषा :
एण्डरसन के अनुसार : आदर्शवाद मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष पर बल देता है इसका कारण है कि आध्यात्मिक मूल्य मनुष्य और जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैI आदर्शवादियों का विश्वास है कि मनुष्य अपने असीमित मानस से प्राप्त करता हैI वे मानते हैं कि व्यक्ति और संसार दोनों बुद्धि की अभिवृत्तियाँ हैI”
  1. आदर्शवाद की तत्व मीमांसा : आदर्शवाद के समर्थक दार्शनिक यूं तो अलग-अलग विचार रखते हैं परंतु इन दो बातों पर एकमत हैं :
१.  ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता एवं अंतिम सत्य है।
२. मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य आत्मा परमात्मा के स्वरूप को समझना तथा इसके नियम आवश्यक आदर्शों एवं नैतिक मूल्यों का पालन करना।
इस तरह आदर्शवाद के तत्व मीमांसा के आधार पर आदर्शवाद के पाश्चात्य विचारकों के विभिन्न सिद्धांत सामने आते हैंI

  1. आदर्शवाद की ज्ञान मीमांसा:
विचारों की दैवीय व्यवस्था आत्मा परमात्मा के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है।
ज्ञान ही विचार के स्वरूप में हमें प्राप्त होता है और प्लेटो के अनुसार ज्ञान का आधार विवेक, बर्कले आत्मा को और कान्ण्ट बुद्धि को ज्ञान का आधार मानते हैं।

  1. आदर्शवाद की आचार मीमांसा : आदर्शवादियों के अनुसार जीवन का अंतिम उद्देश्य आत्मा ही होती हैI इसकी प्राप्ति के लिए नैतिक जीवन की आवश्यकता हैI नैतिक जीवन जीने के लिए भारतीय दार्शनिकों ने सात्सव मूल्यवान जैसे सत्यम शिवम सुंदरम पर बल दिया है। जब कि यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने इन मूल्यों की प्राप्ति के लिए संयम, धैर्य न्याय एवं ज्ञान के सद्गुणों को मनुष्य में विकसित करने की आवश्यकता पर बल दिया है।

आदर्शवाद के मूल सिद्धांत :
१.  ईश्वर ब्रह्मांड की नियामक सत्ता है।
२.  आदर्शवाद में आध्यात्मिक जगत ही सर्वश्रेष्ठ है।
३.  आत्मा और परमात्मा का संबंध पवित्र है।
४.  आदर्शवादियों का सात्वत मूल्यों में पूर्ण विश्वास हैI (सात्वत मूल्य :  सत्यम शिवम सुंदरम)
५. आदर्शवादियों के अनुसार मनुष्य संसार की सर्वश्रेष्ठ रचना है।
६.  आदर्शवादियों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में पूर्ण हैं।
७. संसार की समस्त वस्तुएं एक ही चेतन तत्व से बंधी हुई है।   (चेतनतत्व : परमात्मा या ब्रह्म)

शिक्षा में आदर्शवाद :
दर्शन के रूप में आदर्शवाद एक संपूर्णवाद हैI शिक्षा के क्षेत्र में इनका प्रयोग अनेक शिक्षा वैदिक दार्शनिकों ने किया हैI आदर्शवादियों को पूर्ण विश्वास है कि व्यक्ति एक आध्यात्मिक ऊर्जा के साथ जन्म लेता है और शिक्षा इस ऊर्जा को आवेशित व प्रकाशित करती हैI शिक्षा पद्धति कोई भी हो शिक्षक का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए।
आदर्शवाद शिक्षा के उद्देश्य :  व्यक्तित्व का चरम उत्कर्ष एवं आत्मानुभूति।
आदर्शवादियों के अनुसार मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना हैI उसे उसके योग्य ऊंचाइयों तक पहुंचाना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य हैI इसी को व्यक्तित्व का चरम उत्कर्ष कहा जाता है।
मनुष्य एक ऐसी योनि हैI जिसमें व्यक्ति अपनी समस्त शक्तियों एवं क्षमताओं को पूर्ण रूप से विकसित कर सकता हैI यह वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति सामाजिक एवं पारिवारिक वातावरण में रहते हुए अपनी आत्मिक शक्ति को विकसित करके पूर्णता की ओर पहुंच सकता हैI इसी को प्लेटो ने आत्मानुभूति कहा हैI इस कार्य में शिक्षा ही उसकी सहायता कर सकती है।


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प्रयोजनवाद (PRAGMATISM)

        प्रयोजनवाद
नामकरण :
चार्ल्स सेण्डर्स पीयर्स के अनुसार : अर्थक्रियावाद/व्यवहारवाद
विलियम्स :  अनुभववाद/कलावाद
जॉनडिवी :  साधनवाद/ प्रयोगवाद
किलपैट्रिक :  प्रयोजनवाद
प्रयोजनवाद या व्यावहारिकवाद एक भौतिक वादी दर्शन हैI प्रयोजनवाद शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के प्रैग्मा शब्द से हुई हैI जिसका अर्थ है क्रिया अथवा किया गया कार्य कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार यह शब्द ग्रीक भाषा के “प्रेग्माटिकोसशब्द से लिया गया हैI जिसका अर्थ है व्यावहारिकता अथवा उपयोगिताI अतः इस विचारधारा के अंतर्गत क्रियाशीलता तथा व्यावहारिकता को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। प्रयोजनवादियों का मानना है कि पहले किया गया कार्य या कोई भी किया गया प्रयोग पहले होता है फिर उसके फल के अनुसार विचारों अथवा सिद्धांतों का निर्माण होता हैI इसीलिए प्रयोजनवाद को प्रयोगवाद अथवा फलवाद के नाम से भी पुकारा जाता हैI प्रयोजनवाद को फलवाद इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस विचारधारा के अनुसार प्रत्येक क्रिया का मूल्यांकन उसके परिणाम अथवा फल के अनुसार निश्चित किया जाता है।

प्रयोजनवाद का नारा है परिवर्तन इस दृष्टि से कोई भी सत्य स्थानीय होकर सदैव परिवर्तन की अवस्था में हैI अतः प्रयोजनवाद का दावा है कि सत्य सदैव परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता हैI प्रयोजनवाद को प्रयोगवाद इसलिए कहा जाता है क्योंकि प्रयोजनवादी केवल प्रयोग को ही सत्य की श्रेणी में रखते हैंI उनके अनुसार सत्य वास्तविकता, अच्छाई तथा बुराई सब एक सापेक्ष शब्द हैI यह पूर्व निश्चित नहीं है अपितु इन सबको मानव अपने प्रयोग तथा अनुभवों के द्वारा सिद्ध करता हैI अतः प्रयोजनवाद के अनुसार वही बातें सत्य हैं जिन्हें प्रयोग के द्वारा सिद्ध किया जा सकेI प्रयोजनवादियों का यह विश्वास है कि जो विचार अथवा सिद्धांत सत्य थेI यह आवश्यक नहीं है आज भी वह सत्य ही होI अतः प्रयोजनवाद आदर्शवादियों की भांति पूर्व निश्चित तथा प्रचलित सिद्धांतों के अनुसार निरंतर आदर्शों तथा मूल्यों को स्वीकार ना करके प्रत्येक निश्चित दर्शन का विरोध करते हैं तथा इस बात पर जोर देता है कि केवल वही आदर्श तथा मूल्य सत्य है जिसका परिणाम किसी काल तथा परिस्थिति में मानव के लिए व्यावहारिक लाभदायक फलदायक तथा संतोष जनक होI प्रयोजनवाद के मुख्य प्रवर्तक C. B. Pearce William James, John dewey है।

संक्षेप में एक दार्शनिक विचारधारा के रूप में प्रयोजनवाद किसी निश्चित शाश्वत मूल्यों विचारों में विश्वास नहीं करता प्रयुक्त व्यक्ति को स्वयं वैज्ञानिक ढंग से इसके निर्माण पर बल देता हैI इसकी मान्यता है कि मूल्य विचार, आदर्श समय-समय पर बदलते रहते हैंI मनुष्य का चरम लक्ष्य सुख अनुभूति है और इस संसार में आध्यात्मिकता नाम की कोई चीज नहीं है।
प्रेट के अनुसार “  प्रयोजनवाद हमें अर्थ का सिद्धांत सत्य का सिद्धांत ज्ञान का सिद्धांत तथा वास्तविकता का सिद्धांत देता हैI”
विलियम जेम्स के अनुसार प्रयोजनवाद मस्तिष्क का एक स्वभाव और अभिवृत्ति है यह विचार और सत्य की प्रगति का सिद्धांत है और अंत में यह वास्तविकता का सिद्धांत देता हैI”
रोमन के अनुसार प्रयोजनवाद के अनुसार सत्य को उसके व्यवहारिक परिणामों के द्वारा जाना जाता है इसलिए सत्य निरपेक्ष ना होकर व्यक्तिगत अथवा सामाजिक समस्या है।

प्रयोजनवाद के सिद्धांत :
  1. सत्य की परिवर्तनशील प्रकृतिI
  2. वर्तमान तथा भविष्य में विश्वासI
  3. बहुतत्व वाद मे विश्वासI
  4. उपयोगिता के सिद्धांत पर बलI
  5. सत्य का निर्माण उसके फल से होता हैI
  6. सामाजिक प्रथाओं एवं परंपराओं का विरोधI
  7. वास्तविकता निर्माण की अवस्था में होती हैI
  8. समस्याएं सत्य के निर्माण में एक प्रेरणा के रूप में
  9. लचीलेपन में विश्वास
  10. क्रियाकामहत्व

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भारतीय दर्शन और पश्चिमी दर्शन में अंतर

भारतीय दर्शन : भारतीय विचारधारा के अनुसार दर्शन का जन्म मानव के सांसारिक दुखों से मुक्त करने के लिए और सत्य का साक्षात्कार कराने के लिए हुआ हैI जब व्यक्ति को सत्य का बोध हो जाता है तब वह और अविनाशी में अंतर समझ लेता हैI जब से यह दुनिया शुरू हुई है तभी से मानव सिर्फ प्रकृति, ब्राह्मण , सूर्य, तारे केवल इन्ही को लेकर ही नहीं बल्कि ईश्वर को लेकर भी समस्या में पड़ा हुआ हैI उसने ईश्वर को जानने की भी जिज्ञासा नहीं  रखी हैI आज हम इतनी विकसित दुनिया में रह रहे हैं यह उसी जिज्ञासाओं का परिणाम है लेकिन जो हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि थे उन्हें इस सांसारिक सुख से संतुष्टि नहीं हुई वह एक असीम आनंद को प्राप्त करना चाहते थेI उन्होंने सत्य की खोज के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म बातो का गूढ़ से गूढ़ अध्ययन किया और सिर्फ बाहरी रूप से ही नहीं बल्कि आंतरिक रूप से भी और वह इसमें सफल भी हुए और फिर उन्हें परम सत्य का भी ज्ञान हुआI  उसी ज्ञान को उन्होंने दर्शन का नाम दिया और यही INDIAN PHILOSOPHY(भारतीय दर्शन) कहलाती हैI इसलिए आज भी देखने को  मिलता है कि भारत के दार्शनिक विज्ञान को केवल हासिल ही नहीं करना चाहते बल्कि उसको उपयोग में भी लाना चाहते हैंI उनकी अनुभूति को भी प्राप्त करना चाहते हैं जबकि पश्चिम के दार्शनिक बुद्धिमान और प्रज्ञावान बनना चाहते हैंI पश्चिम के दार्शनिक में किताबी ज्ञान और चिंतन के आधार पर ही बुद्धिमान बनना चाहते हैं लेकिन भारतीय दार्शनिक अंतः स्वअध्ययन से ही बुद्धिमान होना चाहते हैंI और इसी व्यवस्था को आगे की ओर ले जाना चाहते हैं।


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EDUCATIONAL SOCIOLOGY AND SOCIOLOGY OF EDUCATION

शैक्षिक समाजशास्त्र (Educational Sociology) :  शैक्षिक समाजशास्त्र सामाजिक विकास और उसकी उन्नति के लिए उन सभी सामाजिक प्रतिक्रियाओं एवं सामाजिक अंत:  क्रियाओं का अध्ययन करता है जिनको जाने बिना शिक्षा के स्वरूप तथा शिक्षा की समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकताI संक्षेप में शैक्षिक समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो शिक्षासंबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली प्रक्रियाओं का जन-समूह संस्थाओं तथा समितियों का अध्ययन करता है।

जॉर्ज पेनी (George Payne) को शैक्षिक समाजशास्त्र का पिता Father of Educational Sociology माना जाता है।
रोसेक के अनुसार   शैक्षिक समाजशास्त्र मुख्य रूप से शिक्षा की समस्याओं से संबंधित समाजशास्त्र हैI”

हेम्पसन के अनुसार शिक्षा समाजशास्त्र शिक्षा तथा समाज के मध्य संबंधों का वर्णन करता हैI”

शिक्षा का समाजशास्त्र (Sociology of Education) :  शिक्षा का समाजशास्त्र विद्यालय में सामाजिक घटना का अध्ययन करता हैI जिससे संस्था के सामाजिक पर्यावरण तथा सामाजिक जीवन में सुधार किया जा सकेI इसके अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए नीचे कुछ परिभाषाएं दी जा रही हैं :
हेन्सन के अनुसार “  शिक्षा का समाजशास्त्र शिक्षा तथा समाज के बीच के संबंध का वर्णन करता हैI”
ब्रुक ओवर के अनुसार शिक्षा का समाजशास्त्र शिक्षा पद्धति में निहित सामाजिक प्रक्रिया तथा सामाजिक प्रतिमानो के विश्लेषण का वैज्ञानिक अध्ययन हैI”


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सभ्यता और संस्कृति

संस्कृति (CULTURE) 
प्रत्येक बालक का जन्म दोहरी विरासत के साथ होता है: जैवीकीय और सांस्कृतिकI
अपनी जैविक विरासत में उसे अपनी शारीरिक विशेषताएं मानसिक क्षमताएं और आधारभूत आवश्यकताएं प्राप्त होती हैI उसे अपनी सांस्कृतिक विरासत समाज से प्राप्त होती हैं जिसमें उसका जन्म और पालन-पोषण होता हैI बालक की शिक्षा में उसकी सांस्कृतिक विरासत का उतना ही महत्व होता हैI जितना कि उसकी जैवीकीय विरासत काI इस पर प्रकाश डालते हुए वेरको व अन्य ने लिखा है : “ यद्यपि समाजशास्त्रियों की खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि संस्कृति जन्मजात ना होकर सीखी जाती है फिर भी इसके  सीखने को इतना अधिक महत्व दिया जाता है कि इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती”




संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and
Definition Of Culture) :
Culture शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के cultra शब्द से हुई हैI जिसका अर्थ है कर्षण खेती, संस्कृति, शिष्टता तथा तहजीबI संस्कृति शब्द संस्कार शब्द का वंशज है जिसका अभिप्राय शुद्ध करने या सुधारने से हैI संस्कार मानव निर्मित व्यवहार की विधियां हैI जिसमें मनुष्य का समाज के प्रति अधिक जागरूक होने का प्रमाण मिलता हैI

परिभाषा (Definition):
टायलर (Tylor) के अनुसार संस्कृति वह जटिल पूर्णता है जिसमें ज्ञान, विश्वास कला, नैतिकता, नियम, रिवाज और समाज के सदस्य के रूप में मनुष्य द्वारा अर्जित की जाने वाली अन्य योग्यताएं और आदतें सम्मिलित हैI”

सदरलैण्ड व वुडवर्ड  ने संस्कृति और सामाजिक विरासत को पर्यायवाची माना है और लिखा है कि “ संस्कृति में कोई भी बात आ सकती है जिसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जा सकता हैI किसी भी राष्ट्र की संस्कृति उसकी सामाजिक विरासत हैI”

संस्कृति की विशेषताएं (Features or Characteristics of Culture)

संस्कृति की विशेषताएं बहुत व्यापक हैं उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :
. ग्रहण करना :  संस्कृति ग्रहण की जाती हैI मानव अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित संस्कृति के साथ दूसरी संस्कृति को ग्रहण कर सकता हैI अंततः हम कह सकते हैं संस्कृति सर्वग्राही है।
. सामाजिक विरासत :  संस्कृति सामाजिक विरासत का वह लक्षण है जो हमने अपने पूर्वजों से सीखा हैI मनुष्य को सामाजिक विरासत के आदर्शों का अनुसरण करना होता है।
. संस्कृति सीखे हुवे व्यवहार का प्रतिमान है :  संस्कृति को समाज में आकर ही सीखा जाता है  क्योंकि संस्कृति कोई जन्म-जात गुण नहीं है।
. संस्कृति में स्थानांतरित होने का गुण होता है :  संस्कृति को सामाजिक विरासत भी कहा जाता है क्योंकि संस्कृति में सीखे जाने का ही नहीं बल्कि हस्तांतरित होने का गुण विद्यमान होता हैI संस्कृति को एक पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करती चलती है।
संस्कृति परिवर्तनशील होती है :  हस्तांतरण के कारण परिवर्तन स्वाभाविक रूप से होता है क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी इसमें अपनी सुविधा एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन करती हैI इसलिए इसमें निरंतर चलने वाली प्रक्रिया में परिवर्तन आता हैI अतः हम कह सकते हैं कि संस्कृति निरंतर चलने वाली परिवर्तनशील प्रक्रिया है।
. संस्कृति सार्वभौमिक, सामाजिक और विशिष्ट होती है: संस्कृति का निर्माण किसी एक व्यक्ति के द्वारा नहीं किया जा सकताI इसका निर्माण तो समाज के अंतर्गत होने वाली अंतःक्रिया से ही संपन्न अथवा संभव हैI अर्थात संस्कृति किसी एक व्यक्ति पर निर्भर ना होकर पूरे समाज पर निर्भर होती है।



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FORMS OF EDUCATION

Forms of Education:



शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया :  प्रमुख शिक्षाशास्त्री Adems ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “Evaluation of Education Theory” में शिक्षा को एक द्विमुखी प्रक्रिया बताया।उनके अनुसार शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करता है जिससे उसके व्यवहार में परिवर्तन होता है।
Bipolar process           TEACHER


                           STUDENT

शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया : शिक्षा शास्त्री John Dewey ने Adems के अनुसार शिक्षा को द्विमुखी प्रक्रिया ना मानकर त्रिमुखी प्रक्रिया माना है। उनका कहना है कि शिक्षा की प्रक्रिया में अध्यापक और शिक्षार्थी के बीच अंतरक्रिया का कोई ना कोई आधार अवश्य होता है और वह आधार है "समाज”|
समाज में रहकर ही बालक का विकास हो सकता है।
समय ही यह तय करता है कि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार बालक को कौन कौन विषय बताए जाने चाहिए। इस प्रकार त्रिमुखी प्रक्रिया में शिक्षक और शिक्षार्थी के अलावा एक तीसरा तत्व भी है जिसे पाठ्यक्रम कहते हैं।
                  TEACHER           

STUDENT                     SYLLABUS

शिक्षा एक बहुमुखी प्रक्रिया: आधुनिक समय में शिक्षा की अवधारणा को व्यापक रूप में स्वीकार किया गया जिसमें शिक्षा केवल विद्यालय व पाठ्यक्रम तक ही सीमित नहीं है उसमें उसके सामाजिक आर्थिक और मनोवैज्ञानिक क्रिया कलापों का भी बहुत महत्व है। विद्यालय के अलावा औपचारिक तथा अनौपचारिक, निरौपचारिक साधनों को भी शिक्षा का साधन माना गया है। स्वअध्ययन करने के लिए या कामकाजी रोजगार युक्त विद्यार्थियों के लिए दूरस्थ शिक्षा, अंशकालिकशिक्षा, पत्राचारशिक्षा प्रमुख विश्वविद्यालय जैसे विभिन्न संस्थाओं एवं सेवा केंद्रों पर बल दिया जा रहा है। इस प्रकार शिक्षा से औपचारिक ना होकर बहू प्रक्रिया बन गई है।

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