३.
जातिवाद : भारत में अनेक जातियां और उपजातियां हैं और प्रत्येक जाति अपने को दूसरी जाति से श्रेष्ठ समझती है और इसी ऊंच-नीच की भावना को लेकर आपस में व्यमनस रखतीहै जिसके कारण राष्ट्रीय एकता में बहुत बड़ी बाधा पहुंचती है।
जातिवादता दूर करने के उपाय : प्रत्येक जाति के लोग अपने व्यक्तिगत हितों की तुलना में राष्ट्रीय हितों को अधिक महत्व देने लगे तो राष्ट्रीय एकता को बल मिल सकता है। जाति प्रेम की भावना यदि राष्ट्र प्रेम में बदल जाए और आपस में जातिवाद को भूलकर सबके साथ समानता का व्यवहार करें तो राष्ट्रीय एकता में विकास हो सकता है।
४.
भाषा संबंधी विरोध : हमारे देश में विभिन्न भाषाएं एवं बोलियां बोली जाती हैं स्वतंत्रता के बाद भाषाओं के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया जिसका परिणाम यह निकला कि हर प्रांत अपनी भाषा में ही सिमट कर रह गया और भारत की राष्ट्रभाषा का प्रश्न जटिल हो गया। भारतीय संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया परंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे ही देश में भाषा के नाम पर जैसे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, पंजाब, असम, इत्यादि प्रांत हिंदी का विरोध करते हैं और उग्र आंदोलन चलाए हुए हैं।
उपाय : राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए पूरे राष्ट्र को एक भाषा के सूत्र में बांधना होगा जब भाषा एक होगी तो देश के लोगों के अंदर राष्ट्रीय भावना भी एक होगी इसलिए राष्ट्रीय एकता के लिए एक भाषा को राष्ट्रीय मान्यता देनी चाहिए।
५.
राष्ट्रीय दलों की समस्या : स्वतंत्रता के बाद हम ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था को अपनाया और देश में विभिन्न राजनैतिक दलों का निर्माण किया। दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसे राजनीतिक दलों का अभाव है जो राष्ट्रीयता की भावना को रखकर कार्य करें अधिकांश राजनैतिक दल जाति भाषा धर्म व संप्रदाय के आधार पर अपना वोट बैंक बचाने की राजनीति करते रहते हैं इसलिए देश की अखंडता व एकता में बाधा पहुंचती है।
उपाय : इसको दूर करने का एक ही उपाय है कि किसी भी राजनीतिक दलों को अपनी जाति भाषा धर्म के नाम पर झगड़ा और मनमुटाव को छोड़कर पूरे देश की एकता एवं राष्ट्रीय भावना को विकसित करने के लिए दायित्वों का निर्वाह करना होगा अपने स्वार्थरूपी दलदल में ना फंसकर एकजुट होकर देश की एकता एवं अखंडता को सुरक्षित करना होगा और दुश्मनों से लड़ना होगा।
६.
कुशल नेतृत्व का अभाव : लोकदल की सफलता के लिए कुशल नेतृत्व का होना बहुत जरूरी है जिसका हमारे देश में बहुत अभाव है भाई-भतीजावाद धन और राजनीति में आने के चक्कर में अच्छे लोग नेतृत्व संभालने के लिए आगे नहीं आते और कुछ ही नेता भाई-भतीजावाद की राजनीति में पड़कर देश का नेतृत्व करने में लगे रहते हैं जिसकी वजह से अपने पद को बचाने के चक्कर में किसी ना किसी घोटाले व भ्रष्टाचार कांड में फंसे रहते हैं और निहित स्वार्थ के लिए जातीयता एवं संप्रदायिकता के नाम पर दंगों को कराते रहते हैं जनता में भड़काऊ दंगे कराते रहते हैं इसीलिए यह देश की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है।
उपाय : देश में कुशल नेतृत्व और अच्छे प्रशासन के लिए एक सूत्र तथा स्वच्छ छवि वाले नेता की आवश्यकता है ऐसे लोग जो किसी अपराध में लिप्त ना हो तथा अपने स्वार्थ को छोड़कर देश और उसके विकास के लिए कटिबद्ध हो। ऐसे लोगों को जनता द्वारा चुनकर देश के शासन की बागडोर संभालन चाहिए तभी देश की एकता अखंडता और विकास सुरक्षित रहेगा।
राष्ट्रीय एकता के वृद्धि के लिए शिक्षा की आवश्यकता : राष्ट्रीय एकता के लिए देश के विकास के लिए ऐसे शैक्षिक कार्यक्रमों को चलाना चाहिए जिससे प्राथमिक स्तर से ही देश के प्रत्येक बालक के अंदर राष्ट्रीय भावना का देश-प्रेम का और राष्ट्रीयता का संचार हो सके। माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार राष्ट्रीय एकता को उत्पन्न करने के लिए चार उद्देश्य बताए गए हैं :
. राष्ट्रीय हित के लिए व्यक्तिगत हित का त्याग करना।
.. देश की निर्बलता को स्वीकार करने की तत्परता।
... व्यक्ति की योग्यता अनुसार देश की सर्वोच्च सेवा।
.... देश के सामाजिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का उचित मूल्यांकन।
कोठारी आयोग
कोठारी आयोग ने राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए शिक्षा-प्रणाली को शक्तिशाली साधन माना है क्योंकि शिक्षा में ही जाति धर्म प्रांत और समुदाय की दुर्भावना के बिना सामान विद्यालय में समान शिक्षा के अवसर प्रदान किए जा सकते है। कोठारी आयोग ने सुझावों को आधार बनाकर निम्न शैक्षिक कार्यक्रम तैयार किए हैं :
(.)
प्राथमिक स्तर पर :
प्राथमिक स्तर के पाठ्यक्रमों में राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीयझंडा ,राष्ट्रपति का पूर्ण ज्ञान कराया जाए और देश से संबंधित शहीदो और वीरों की कहानियां सुनाई जाएं।
(..)
माध्यमिक स्तर पर :
माध्यमिक स्तर पर बालकों को देश के विभिन्न क्षेत्रों और राज्यों की सामाजिक और सांस्कृतिक दशाओ से परिचित कराया जाए और समय-समय पर राष्ट्रीय त्योहारों के माध्यम से राष्ट्रीय भावना का विकास किया जाए।
(...)
विश्व विद्यालय स्तर पर :
उच्च शिक्षा के छात्रों को देश के विभिन्न क्षेत्रों की भाषाओं साहित्य एवं संस्कृतियो का तुलनात्मक अध्ययन कराया जाए और राष्ट्रीय एकता के विकास के लिए देश के विभिन्न भागों में युवा उत्सव का आयोजन किया जाए। राष्ट्रीय शिक्षा के लिए एक समान मूल्य पाठ्यक्रम पूरे देश में लागू किया जाए।
भूमण्डलीकरण/ वैश्वीकरण
वैश्वीकरण शब्द विश्व शब्द से बना है जिसका अर्थ निकलता है एक व्यापक अवधारणा जैसा कि उसके नाम से ही स्पष्ट है कि राष्ट्रीय दायरे से ऊपर उठकर अंतरराष्ट्रीयता में विश्व के सभी राष्ट्रो से सम्बन्धित अवधारणा। विश्व का कोई भी राष्ट्र पूर्ण रूप से अपने को आत्मनिर्भर नहीं कह सकता उसे किसी ना किसी वस्तु के लिए दूसरे राष्ट्र के संपर्क में आना ही पड़ता है इसी के साथ दूसरे राष्ट्र से आपसी सहयोग की भावना का सिलसिला शुरू हो जाता है। वैश्विक सहयोग का इतिहास बड़ा पुराना है जैसे प्राचीन युग में इसमें व्यापार और यात्रियों के माध्यम से हम विश्व के अन्य देशों से सहयोग लेते थे और आज इसी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए एवं विश्व-शांति बनाए रखने के लिए दूसरे देशों का सहयोग लेते हैं।
एक फिलॉसफर के अनुसार
" वैश्वीकरण विभिन्न देशों के मध्य देश के विभिन्न आय समूह के मध्य लाभ या हानि के असमान वितरण की एक विशिष्ट प्रक्रिया है।"
वैश्वीकरण की विशेषताएं :
१. वैश्वीकरण विश्व स्तर की प्रक्रिया है।
२. यह प्रमुख रूप से आर्थिक विकास से जुड़ी हुई है।
३. यह परस्पर सहयोग एवं निर्भरता की प्रक्रिया है।
४. यह गतिशीलता से जुड़ी हुई है।
५. आर्थिक सहयोग के परिणामस्वरूप सामाजिक व सांस्कृतिक सहयोग भी इससे जुड़े हैं।
६. यह विश्व चेतना के विकास से संबंधित है व्यावहारिक रूप से यह प्रक्रिया की विशेषता लाभ –हानि का समान
वितरण है।
वैश्वीकरण की आवश्यकता एवं महत्व :
१. आर्थिक विकास :
कोई भी राष्ट्र अपने आपको पूर्ण आत्मनिर्भर नहीं कह सकता किसी ना किसी वस्तु के लिए उसे अन्य राष्ट्रों पर निर्भर होना पड़ता है अपना आर्थिक विकास करने के लिए एक राष्ट्र जो दूसरे राष्ट्र का सहयोग करते हैं उसी से उसका विकास होता है इसीलिए वैश्वीकरण आज के युग की बहुत बड़ी आवश्यकता है।
२. विश्वव्यापी सामान्य समस्याओं का समाधान :
आज विश्व के राष्ट्र अनेक खेेमो में बटे हुए हैं परंतु उनकी कुछ समस्याएं समान है और कुछ समस्याएं ऐसी हैं जो सभी राष्ट्र की समस्या है। जैसे : पर्यावरण शांति, सुरक्षा, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, चिकित्सा एवं जनसंख्या। इन सब समस्याओं के समाधान के लिए विश्वव्यापी सहयोग की आवश्यकता है।
३. विश्व-नागरिकता का विकास :
एक शांतिपूर्ण एवं समृद्ध जीवन प्रत्येक मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है। अतः प्रत्येक राष्ट्र ना सिर्फ अपने बल्कि सभी राष्ट्रों के नागरिकों के हितों को ध्यान में रखकर ही नीतियों का निर्धारण करें तभी विश्व-नागरिकता का विकास हो सकता है।
अतःविश्वनागरिकताकीभावनाकाविकासकरनेकेलिएवैश्वीकरणकीप्रक्रियाअत्यंतआवश्यकहै।
४. नवीन ज्ञान का सर्वव्यापीकरण :
आज का युग सूचना तथा प्रौद्योगिकी का युग है एक देश में यदि कोई नया अविष्कार होता है या कोई नई तकनीकी जन्म लेती है तो उस पर सिर्फ उस देश का ही अधिकार नहीं , वह पूरे विश्व की धरोहर बन जाती है इसलिए आज जो भी नवीन ज्ञान है उसका सर्वव्यापीकरण हो रहा हैI दुनिया छोटी हो गई है और दूरियां कम हो गई है ऐसी स्थिति में नवीन ज्ञान की प्राप्ति के लिए आपसी सहयोग और सद्भावना की बहुत आवश्यकता है इसी कारण से वैशवीकरण का महत्व बहुत बढ़ गया है।
वैश्वीकरण और भारत ( टिप्पणी) :
भारत में वैश्वीकरण का प्रारंभ 1991 में हुआ था तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पीoवीo नर सिम्हा राव ने नई आर्थिक नीति की घोषणा करते हुए भारत के लिए वैश्वीकरण की आवश्यकता पर जोर दिया था। उनका कहना था कि भारत विश्व की अर्थव्यवस्था दिशा और प्रवृत्तियों के विरुद्ध जाकर अपना निर्धारण नहीं कर सकता। आर्थिक उदारीकरण के अंतर्गत व्यापार निर्यात उत्पादकता का लाभ तभी बढ़ता है जब हम विश्व की अर्थव्यवस्था का भी अध्ययन करते हैं। आज इसी नीति पर चलते हुए भारत विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्था बन रहा हैI इसी वैश्वीकरण के फलस्वरुप आज हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत हुई है। हमारे विदेशी मुद्राभंडार में उत्पादन दर में और निर्यात में भी वृद्धि हुई हैI विदेशी निवेश की गति को भी बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैंI वैश्वीकरण के कारण आज भारत की आर्थिक स्थिति और प्रतिष्ठा पहले से बहुत बेहतर हो गई है।
वैश्वीकरण और शिक्षा :
वैश्वीकरण का प्रभाव जितना आर्थिक क्षेत्र में दिखाई देता है उतना आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में भी दिखाई दे रहा है वास्तव में अंतरराष्ट्रीय सहयोग और तकनीकी अविष्कार के कारण ज्ञान और सूचना की सुगमता के रूप में हमारे सामने अनेक अवसर उपलब्ध हैं। भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में संख्यात्मक वृद्धि हुई हैI 1950 में 27 विश्वविद्यालय से प्रारंभ होकर आज विश्वविद्यालयों की संख्या 370 हो गई है, महाविद्यालयों की संख्या 568 से बढ़कर 17000 से ज्यादा हो गई है। आज शैक्षिक परिवेश में भारत विश्व की बौद्धिक राजधानी के रूप में स्वीकार किया जा रहा है लेकिन चिंता का विषय यह है कि जितनी अधिक संख्या में स्नातक तैयार कर रहे हैं उनके आधे बेरोजगार हैं क्योंकि हमने संख्या बढ़ाने पर तो ध्यान दिया लेकिन गुणवत्ता पर नहीं इस दृष्टि से हमें शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा के उद्देश्यों का पुनः निर्धारण करना होगा।
वैश्वीकरण के अंतर्गत शिक्षा के विकास के लिए निम्न उद्देश्य निर्धारित किए जाने चाहिए :
१. आधुनिकीकरण :
आधुनिकीकरण कोई पश्चिमीकरण नहीं है जिससे हमारा राष्ट्र सदा परहेज करता है। अत: शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए कि हम पश्चिमी जीवन शैली को ना अपनाकर आधुनिकीकरण को अपनालें अर्थात अपने शिक्षा में आधुनिक प्रयोगों का समावेश करना चाहिए। आधुनिकीकरण से तात्पर्य है कि जीवनके प्रत्येक क्षेत्र में विश्व के अधिकतम विज्ञान की खोजों तकनीतियों व प्रौद्योगिकी तकनीकों को अपनाकर अपनी कायक्षमता को बढ़ाना उत्पादन को बढ़ाना और आर्थिक विकास द्वारा अपने नागरिकों के जीवन स्तर को उठाना।
विश्व-नागरिकता का विकास :
आज के युग में यह आवश्यक है कि प्रत्येक बालक से अपने देश के ही बारे में न सोचे उसे विश्व के अन्य देशों के बारे में भी सोचना-समझना चाहिए। तभी वह बालक अपने हितों का त्याग करके विश्वनागरिकता का विकास कर सकेगा और विश्वनागरिकता का विकास ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है।
सात्वत भूमियों का स्थानांतरण :
आधुनिकीकरण के दौर में हम अपनी जड़ों से पिछड़ न जाएं इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा अपने पारंपरिक आदर्शों एवं मूल्यों का संरक्षण एवं हस्तांतरण करती रहे।
व्यवसायिक दक्षता का विकास :
व्यवसायिक दक्षता वैश्वीकरण की गाड़ी का इंजन है जो देश जितना व्यवसायिक रूप से कुशल होगा उस देश का आर्थिक विकास भी उतना ही तेज होगा इसलिए शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए कि वह अपने छात्रों को नवीन ज्ञान में दक्ष बनाए जिससे कि वैश्वीकरण को लाभ हो।
हमारे देश को आजाद हुए लगभग 70 वर्ष हो गए हैं तब से अब तक देश को अनेक आर्थिक संकटों से गुजरना पड़ा हैI अप्रैल 1951 से आर्थिक नियोजन के कई नीतियां अपनाई गई जिसके अंतर्गत पंचवर्षीय योजना प्रारंभ की गई। उद्योगों के स्थापना के लिए लाइसेंस की नीति अपनाई गई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से ऋण व सहायता भी ली गई। सामाजिक क्षेत्रों में अनेक सुविधाएं प्रदान की गई इन सब सुविधाओं के होते हुए भी अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हमारी स्थिति अच्छी नहीं रही और दुग्ध उत्पादन में भी कमी रही अंतरराष्ट्रीय स्तर से निम्न रही।
आयात- निर्यात से ज्यादा रहा।
विदेशी मुद्रा भी पर्याप्त नहीं आयी।
1991 में भारत को महान आर्थिक संकटों से गुजरना पड़ा।
देश में जिन आर्थिक समस्याओं ने 1991 तक संकट का रूप ले लिया थाI वह अचानक से पैदा नहीं हुई थी वह काफी वर्षों से चली आ रही थी अर्थव्यवस्था की कमजोरी थीI 80 के दशक में अर्थव्यवस्था का जिस लापरवाही के साथ समस्त प्रबंधन किया गया थाI उससे ही अंततः विशाल आर्थिक असंतुलन पैदा हो गया थाI सरकार के राजस्व और व्यय में बढ़ते हुए अंतर से निरंतर बढ़ता हुआ राज-कोष घाटे में चला गया। 1990 की भारी संकट ने भारत की समस्त आर्थिक समस्याओं को और बढ़ा दिया। इन कारणों से भारत की अर्थव्यवस्था में अंतरराष्ट्रीय विश्वास बहुत कम हो गयाI
जिससे पूंजी बाजार में इस देश के शाख बहुत नीचे हो गयी इस आर्थिक संकट को हम तीन बिंदुओं में स्पष्टत: समझ सकते हैं :
(.) भारी राज-कोषीय घाटा
(..) बड़ी मात्रा में भुगतान संतुलन के चालू खाते में घाटा
(...) बढ़ी हुई मुद्रा-स्फीतिI
भारतीय अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए और देश की आर्थिक नीति एवं नियंत्रणो की शासन प्रणाली को तोड़ने की ओर सरकार का ध्यान केंद्रित किया गया ताकि आधुनिकीकरण के युग में निजी क्षेत्र के विनियोजन को एक जबरदस्त प्रोत्साहन प्राप्त हो सके और जिसके फलस्वरूप देश में तीव्र आर्थिक विकास हो सके।
21 जून 1991 में भारत में कांग्रेस सरकार द्वारा इसके प्रधानमंत्री श्री पीOवीO नरसिम्हा राव ने कुछ आर्थिक सुधारों के लिए कुछ उपयुक्त उपायों की घोषणा वित्तमंत्री डॉO मनमोहन सिंह के निर्देशन में की थी। सभी राजनैतिक दल आर्थिक-सुधारों के क्रियान्वयन में लगभग एक मत हो गए जिन उपायों की घोषणा की गई वह इस प्रकार हैं :
(.) ब्याज-दर को बढ़ा कर मौद्रिक नीति को और मजबूत बनाया गया।
(..) रुपए की विनिमय दर का 22% अमूल्य किया गया व्यापार प्रणाली में भारी सरलीकरण और उदारीकरण की घोषणा की गई।
(...) निजी क्षेत्र के लिए अधिक विस्तृत क्षेत्र उपलब्ध कराने के लिए बहुत सी नीति संबंधी नियम परिवर्तित किए गए।
(....) औद्योगिक लाइसेंस नीति तथा आया त निर्यात नीति को भी सरल बनाया गया।
(......) आर्थिक राजनीति को केंद्र के रूप में सरकार ने राज-कोषीय असंतुलन को कम करने का भी प्रोग्राम बनाया गयाI इस प्रकार आर्थिक सुधार के लिए की गई प्रक्रिया में लगभग 28 वर्ष पूरे हो चुके हैं आशा है कि अर्थव्यवस्था की प्रक्रिया को एक नई गति प्रदान होगी।
भारत में उदारीकरण
अभिप्राय :
उदारीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें देश के शासन तंत्र द्वारा देश के आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए आर्थिक नीति में नियंत्रण हो को सरलीकरण तथा उदारीकरण करना तथा प्रशासनिक अवरोधों को कम करना होता हैI
उदारीकरण के उद्देश्य :
भारत में उदारीकरण के निम्न उद्देश्य है :
(.) देशवासियों के जीवन स्तर में तीव्र औ र सतत सुधार लानाI
(..) आय और उत्पादक रोजगार में तेजी से वृद्धि करनाI
(...) उत्पादकता में तेजी से वृद्धि के लिए ऐसा वातावरण तैयार करना जो मानव संसाधनों के पूर्ण उपयोग को प्रोत्साहित कर सके।
(....) भारतीय अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन करके देसी उद्योगों को अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में सक्रिय बनाना।
(.....) ढांचागत सुधार मुख्य रूप से औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली और नियमन विदेशी व्यापार एवं पूंजी निवेश तथा वित्तीय क्षेत्र में किए गए सुधार शामिल है।
(......) भारतीय अर्थव्यवस्था का अंतरराष्ट्रीयकरण एवं भूमंडलीकरण अर्थात सभी वस्तुओं के आयात की अनुमति।
(.......) सीमा शुल्क में कमी विदेशी पूंजी का मुक्त प्रवाह सेवा में विदेशी पूंजी के अनुमति और रुपए को पूर्ण परिवर्तनीय बनाने के उपाय करना।
उदारीकरण का मूल्यांकन :
उदारीकरण के द्वारा ही भारत का विकास संभव हैI विभिन्न आर्थिक सर्वेक्षणों के द्वारा यह सुझाव दिया गया है कि भारत में आर्थिक नीतियों में उदारीकरण को अपनाया जाए उदारीकरण के कारण ही भारत सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक शक्ति के रूप में उभर सका है सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हमने अपनी शक्ति का प्रदर्शन अमेरिका ब्रिटेन जापान और जर्मनी जैसे देशों में किया है।
कुल मिला कर देखा जाए तो उदारीकरण के दो दशकों में जहां कुछ सकारात्मक बदलाव आया है तो इसके कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं जैसे –जब से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हमारे देश में आने का नियंत्रण मिला है तब से हमारे देश में भारतीय उद्योग धंधे की स्थिति बहुत खतरे में हैI अधिकतर भारतीय कंपनियां प्रतिस्पर्धा से बदहाल हो गई है और कुछ कंपनियों के बंद होने से अब तक लगभग 10,00000 लोग बेरोजगार हो चुके हैं जिन्हें रोजगार देने के लिए सरकार के पास कोई भी संसाधन नहीं है।
सूचना प्रौद्योगिकी के विकास पर ही निर्भर नहीं है बल्कि देश की कृषि और उस पर आधारित छोटे छोटे उद्योगों को के विकास से भी देश का विकास हो सकता हैI प्रतिस्पर्धा के इस दौर में अपने भारतीय कृषि को उन्नत बनाने और संरक्षण देने के लिए तथा आधुनिकीकरण से जोड़ने के लिए विचार प्रदान करना चाहिए और यदि इस का सकारात्मक पहलू देखें तो वर्ष 1950, 1960 एवं 1970 के दशक में विकास दर 3% थी जबकि 1990 के दशक में विकास दर बढ़कर 6% हो गई है। 1990 के दशक में प्रारंभ में हमारे विदेशी मुद्रा भंडार शून्य था जो आज बढ़कर 110 अरब डॉलर हो चुका हैI मुद्रा-स्फीति की दर जो पहले 16 से 18% पहुंच गई थी अब 6% के आस-पास ही रह गई हैI रुपए का अवमूल्यन ना होना भी एक सकारात्मक लक्षण है।
आर्थिक सुधारों के फलस्वरुप बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की नीतियों के चलते उद्योगपतियों व्यवसायियों को सुविधाएं हासिल हुई हैI अभी बैंकिंग और फाइनेंस सेक्टर सुदृढ नहीं हुआ हैI ऋण दिए जा रहे हैं लेकिन वसूली नहीं हो पा रही है जोड़ों पर ब्याज का प्रतिशत ज्यादा है जो की बचत पर ब्याज का प्रतिशत कम हैI राष्ट्र की समूची अर्थव्यवस्था पर इन सुधारों का असर क्यों नहीं पड़ रहा है? क्योंकि ऊर्जा, जल, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, परिवहन ऐसे क्षेत्र हैं जहां आर्थिक सुधार लागू नहीं हुए हैं रोजगार के नए साधन उपलब्ध नहीं हो पाए हैंI इस प्रकार कृषि एवं उद्योगों के बीच बेहतर ताल-मेल के द्वारा ही आर्थिक सुधारों का लाभ ग्रामीण क्षेत्रों को पहुंचाया जा सकता है।
निजीकरण
निजीकरण आजादी के लगभग चार दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में देश में ना केवल आधारभूत उद्योगो की श्रंखला तैयार हुई बल्कि अधिकांश उद्योगों में लाभ कमाकर स्वस्थ और औद्योगिक माहौल बनाया गया। लेकिन आजादी के पांचवें दशक में सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकांश उद्यम संकटग्रस्त हो गए। कुछ का लाभ कम होने लगा कुछ घाटे में चलने लगे और कुछ बड़ी स्पर्धा में दम तोड़ने लगे तमाम विदेशी कंपनियां शुद्ध लाभ कमाने का उद्देश्य लेकर बे रोक-टोक देश में प्रवेश करने लगी और देश की कंपनियों व उद्यमों के सामने संकट पैदा हो गयाI धीरे-धीरे स्थिति यह बन गई कि इस समस्या से छुटकारे का एकमात्र रास्ता निजीकरण को ही मान लिया गया और इन कंपनियों में विनिवेश की अनेक योजनाएं बनाए जाने लगी। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के बारे में अनेक प्रकार की मिथ्यायें व धारणाएं भी प्रचलित की गई कि यह अनुपयोगी है और इनका घाटा लगातार बढ़ रहा हैI घाटे के उद्यमों को सुधारने की वजह लाभकारी उद्यमों को बेचने की होड़ सी लग गई।
विनिवेश और निजीकरण दो अलग-अलग अवधारणाएं नहीं बल्कि एक दूसरे के पर्यायवाची हैं इसका तात्पर्य आर्थिक संसाधनों एवं व्यवस्था में सरकार की भागीदारी कम करना और निजी कंपनियों को बढ़ावा देना है जिसे हम विनिवेश कह रहे हैं पश्चिमी देशों में उसे ही निजीकरण कहा जाता है।
निजीकरण का अर्थ एवं अवधारणा :
संकुचित अर्थ में :
निजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोक क्षेत्र में स्वामित्व एवं प्रबंध में चल रही आर्थिक क्रियाओं को निजी स्वामित्व या प्रबंध एवं संचालन में अंतरित किया जाता है।
विस्तृत अर्थ में :
लोक क्षेत्र को सीमित करने और निजी क्षेत्र को व्यापक बनाने के सभी प्रयासों को निजीकरण की धारणा में प्रयोग किया जाता हैI निजीकरण उदारीकरण का एक पूरक पहलू हैI सार्वजनिक उपक्रमों की कार्य-कुशलता में कमी तथा भारी घाटे को ध्यान में रखकर सरकार में ऐसे उपक्रमों का निजीकरण करने की नीति अपनाई है जिसके अंतर्गत उनका अपनिवेश(DISINVESTMENT) किया जा रहा है अर्थात उनकी पूंजी या स्वामित्व निजी व्यक्ति को बेची जा रही है।
भारत में निजीकरण के उद्देश्य :
(.) लोक उपक्रमों के कुशलता एवं लाभदायकता के निम्न स्तर की समस्या का समाधान।
(..) आर्थिक निर्णय में राजनीतिक हस्तक्षेप को समाप्त करना।
(...) लोक उपक्रमो के विक्रय के द्वारा सरकारी आय में वृद्धि करना।
(....) उपक्रमों के घाटे के कारण बजट पर पड़ने वाले दबाव से मुक्ति।
(.....) लोक उपक्रमों में स्वायत्तता की कमी खराब प्रबंध की प्रेरणा आदि समस्याओं का हल।
(......) लोक उपक्रमों के अंशों को जनता में भेजकर लोक क्षेत्र को मात्र सरकारी क्षेत्र के स्थान पर जनता का क्षेत्र बनाना।
(.......) अंतर्राष्ट्रीय जगत में उदारीकरण की विचार धारा के साथ सामंजस्य स्थापित करना।
भारत में निजीकरण का मूल्यांकन :
भारत में निजीकरण की लहर 80 के दशक में उत्पन्न हुई यद्यपि कुछ विशेषज्ञों की राय में यह ठीक है क्योंकि इस प्रकार की व्यवस्था में संपत्ति पर स्वामित्व सरकारी प्रमुखता ही बनी रहती है लेकिन उन्हें निजी क्षेत्रों को पट्टे पर उठा दिया जाता है जिससे उनके उपक्रमों में कार्य-शैली में कुशलता और लाभ का प्रतिशत ज्यादा होता है लेकिन निजीकरण के द्वारा प्राय: आवंटन कुशलता प्राप्त नहीं हो पाती क्योंकि प्रभावी एकाधिकार अधिनियम के अभाव में उत्पादन अनुकूलतम से कम ही होता है।
भारत जैसी बड़ी विकासमान अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र को नकारा नहीं जा सकताI सरकार का तर्क है सार्वजनिक उपक्रम लाभ में नहीं चल रहे हैंI ज्यादातर घाटा ही हो रहा है इसलिए उन्हें निजी हाथों में दे देना चाहिए परंतु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में और निजीक्षेत्र की इकाइयों के लाभ में कुछ फर्क है सार्वजनिक क्षेत्रों के उद्यमों का कोई एक लक्ष्य नहीं बल्कि वह कई लक्ष्यों का समुच्चय होता है।
भारत में निजीकरण का विरोध क्यों हो रहा है? :
यहां कर्मचारियों के लिए एक आदर्श व्यवस्था होती हैI उनकी जीवन शैली और भविष्य के लिए भी उदार दृष्टिकोण होता हैI किसी भी इकाई को लगाते समय यह देखा जाता है कि देश के सुदूर वर्ती क्षेत्रों में कितना हित रक्षण होता हैI यही कारण है कि आदिवासी बाहुल्य पिछड़े इलाकों में सार्वजनिक क्षेत्रों की बड़ी-बड़ी इकाइयाँ स्थापित की गयी हैं।
बोकारो में इस्पात का कारखाना बना तो रांची में भारी इंजीनियरिंग का दूसरी तरफ मानवीय पहलुओं एवं पिछड़े इलाकों के बुनियादी विकास से निजी क्षेत्रों की इकाइयां उद्यमों का कोई सरोकार नहीं होता उनका तो अपना लाभ अंतिम अभीष्ट होता है।
निजीकरण का सबसे अधिक विरोध श्रम संघों द्वारा किया गया है क्योंकि वह लोग यह समझते हैं कि अपने क्षेत्र में अधिक सुरक्षित हैंI बीमा कंपनियां बैंकिंग दूरसंचार इत्यादि में इस संदर्भ में देश में हड़ताली भी हुई हैं लेकिन निजीकरण के पश्चात मूल्यों का निर्धारण लाभ के आधार पर होगा तथा यदि निजी क्षेत्र की एकाधिकारी स्थिति बन गई तो उपभोक्ताओं का शोषण हो सकता हैI ब्यूरोक्रेट्स भी निजीकरण का पूर्ण समर्थन नहीं करते क्योंकि ऐसा होने से उनकी नियंत्रक सत्ता में कमी आएगीI कुछ समाजवादी विचारक दर्शन के आधार पर भी निजीकरण का प्रतिरोध करते रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीयता (INTERNATIONALISM)
अंतर्राष्ट्रीय भावना के लिए शिक्षा (Education for International Understanding) :
अंतर्राष्ट्रीयता की भावना विश्व मैत्री और विश्व-बंधुत्व की महान भावनाओं पर आधारित है।
मानव- मात्र का कल्याण हो प्राणी मात्र पर समान दृष्टि रहे विश्वभर में राष्ट्रों की पारस्परिक मित्रता होI उनमें भाई-चारा का नाता हो तब अंतर्राष्ट्रीयता की भावना पनपती है। हमारे वेदों में प्राचीन काल से ही निहित है
" वसुधैव कुटुंबकम"
" आत्मवृत्त सर्वभूतेषु"
जिसमें अंतर्राष्ट्रीयता की भावना का प्रभाव दिखाई देता है।
आज विश्व के ज्यादातर राष्ट्र ओच्छी राष्ट्रीयता की भावना से आच्छादित है। एक राष्ट्र अपनी सुख समृद्धि और विकास के लिए दूसरे राष्ट्र की बलि देने के लिए भी तैयार है।
विश्व के पिछले दो महायुद्ध प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध इसी राष्ट्रीयता के ओच्छे और घृणित भावना का परिणाम है।
अंतर्राष्ट्रीयता के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए यह परिभाषा निम्नलिखित है :
गोल्डस्मिथ के अनुसार :
“अंतर्राष्ट्रीयता एक भावना है जो व्यक्ति को बताती है कि वह अपने राष्ट्र का सदस्य ही नहीं वरन विश्व का नागरिक भी हैI”
यूनेस्को (UNESCO) व अंतर्राष्ट्रीय भावना : “यूनेस्को का आधारभूत सिद्धांत है कि युद्ध मनुष्य के मस्तिष्क में प्रारंभ होते हैं इसलिए शांति की सुरक्षा के साधनों का निर्माण मनुष्य के मस्तिष्क में ही किया जाना चाहिएI”
यूनेस्को का कहना है कि शिक्षा विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में विभिन्न राष्ट्रों में सहयोग और विरोधो के कारणों को मिटाने के लिए बहुत आवश्यक है कि विश्व-संस्कृति का विकास किया जाएI सभी राज्यों के विचारक, साहित्यकार, कवि और शिक्षाशास्त्री यह लोग यह काम सबसे अच्छा कर सकते हैंI एक दूसरे के संस्कृति को समझने व अपनी समस्याओं पर परस्पर विचार-विमर्श द्वारा समझाने का प्रयास किया जाए तो विश्व-संस्कृति का निर्माण हो सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय भावना में विकास के लिए सिद्धांत :
सन 1974 में यूनेस्को द्वारा अंतर्राष्ट्रीयता के लिए शिक्षा नामक एक पत्रिका प्रकाशित की गई जिसमें माध्यमिक विद्यालयों में सामाजिक विज्ञान को शिक्षा का माध्यम बनाने पर बल दिया गयाI इस संबंध में निम्नलिखित कुछ सिद्धांत इस प्रकार हैं :
१.
युवाओं में स्वतंत्र विचार करने की शक्ति जगाना :
आधुनिक संसार के किसी भी समस्या में किसी भी अंग में रूचि लेने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित किया जाए। सामाजिक विज्ञान के शिक्षण में विश्व के सभी मुख्य अंगो के अध्ययन पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि बालकों में स्वतंत्र रूप से सोचने समझने की शक्ति का विकास हो सके और किसी भी समस्या को वैज्ञानिक ढंग से सुलझाने की आदत डाली जा सके।
२. भय की समाप्ति :
आज प्रत्येक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से सदैव भय बना रहता हैI इसी कारण प्रत्येक राष्ट्र अपनी सुरक्षा के लिए दूसरे राष्ट्र से अधिक शक्तिशाली और विनाशकारी शस्त्रों के निर्माण में लगा रहता हैI जिसका परिणाम यह है कि समस्त मानव जाति आज युद्ध के द्वार पर खड़ी हुई हैI यदि सभी राष्ट्र एक दूसरे के प्रति स्नेह प्रेम और सहयोग की भावना का विकास करें या इस भावना को जागृत करें तो इस भय से मुक्ति पाई जा सकती है।
३. ज्ञान का व्यवहारिक प्रयोग :
अंतर्राष्ट्रीय भावना का एक मात्र साधन है शिक्षाI जिसे नागरिक प्राप्त करके अपने वास्तविक जीवन में व्यवहारिक ढंग से प्रयोग कर सकते हैंI उन्हें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे दया, सौहार्द, न्याय-प्रियता, सहयोग इत्यादि गुणों का विकास किया जा सकता है ताकि वह जाति-धर्म, राष्ट्र के भेद-भाव से ऊपर उठकर मानवता का आदर कर सकेI राष्ट्रीयता की संकीर्णता को छोड़कर मानव जाति के कल्याण के लिए जब वह अपने ज्ञान का उपयोग करेंगे तभी अंतर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास हो सकता है।
४. देश भक्ति का निर्वाचन पुनः करना आवश्यक है :
अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए देश-भक्ति की संकीर्ण धारणा बहुत हानिकारक हैI आज वैश्वीकरण के युग में अपना देश महान है या अपने देश का हित सर्वोपरि हैI ऐसा नारा लगाना मानव हित के लिए बहुत ही घातक हैI अतः हम अपने देशभक्ति को सिर्फ अपने देश के लिए ही नहीं अपितु समस्त मानव जाति के हित लिए प्रयोग करना चाहिए।
५. निर्भरता का सिद्धांत :
विश्ववाद या वैश्वीकरण आज आपसी निर्भरता के सिद्धांत पर टिका हुआ हैI किसी भी राष्ट्र को आज के युग में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना असंभव हैI प्रत्येक व्यक्ति को यह बात समझनी चाहिए कि बिना एक दूसरे की सहायता के कोई भी व्यक्ति या राष्ट्र आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक इत्यादि किसी भी दृष्टिकोण से अपनी उन्नति नहीं कर सकताI आज विश्व में जो भी कुछ बुरा या संकटग्रस्त स्थिति बनी हुई है उसके लिए हम स्वयं उत्तरदायी है।
६. व्यक्तिगत व सामाजिक चेतना :
अंतर्राष्ट्रीयता के विकास के लिए प्रत्येक नागरिक में स्वस्थ सामाजिक चेतना का विकास आवश्यक हैI शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए जो समाज व व्यक्ति दोनों की जीवन शैली
“जियो और जीने दो” के सिद्धांत पर आधारित होता कि व्यक्ति और समाज दोनों की उन्नति हो तब जाकर अंतर्राष्ट्रीयता की सद्भावना का विकास संभव हो सकेगा।
अंतर्राष्ट्रीय भावना व शैक्षिक कार्य
७. अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए शिक्षा के उद्देश्य
अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिए रेडियो , समाचार पत्र, भाषण, सिनेमा आदि अन्य साधनों को महत्वपूर्ण बताया जाता है परंतु इन सब साधनों में शिक्षा को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया हैI अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए यूनेस्को द्वारा प्रतिपादित शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं :
(.) बालक बालिकाओं को समाज के निर्माण में सक्रिय भाग लेने के लिए तैयार किया जाए।
(..) उनको विश्व में एक साथ रहने के लिए आवश्यक बातों का ज्ञान कराया जाए।
(...) उनको अपने स्वयं की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पक्ष-पातों को महत्व न देकर शिक्षा प्रदान की जाए।
(.....) उनको विश्व के समस्त व्यक्तियों के रहन-सहन के ढंग मूल्यों आकांक्षाओं से परिचित कराया जाए।
(.......) उनको सभी स्थानों के व्यक्तियों का एक-दूसरे के प्रति व्यवहार का आलोचनात्मक निरीक्षण करने का प्रोत्साहन दिया जाए।
(.........) उनमें समस्त राष्ट्रीयता की संस्कृतियों एवं प्रजातियों के व्यक्तियों को समान समझने की भावना उत्पन्न की जाएं।
८. पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकों में भी परिवर्तन :
अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए आवश्यक है कि पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकों में भी परिवर्तन किया जाए जैसे भूगोल एवं इतिहास तथा अन्य सामाजिक विषयों की पुस्तकें। इन पुस्तकों में देश-विदेश की भौगोलिक परिस्थितियां देश-विदेश का इतिहास देश—विदेश की सभ्यता एवं संस्कृति का समावेश करना चाहिए।
प्रत्येक देश में प्रत्येक नागरिक को उसके पाठ्यक्रम में उपर्युक्त तीन प्रकार की परिस्थितियों से परिचित कराया जाए तब जाकर देश में अंतर्राष्ट्रीयता का विकास हो सकता हैI उनके पाठ्यक्रमों के अनुसार उनकी पाठ्य पुस्तकों में भी परिवर्तन होना चाहिएI प्रत्येक देश की पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में अपने देश की ही नहीं अपितु विश्व के समस्त राष्ट्रों के बारे में उनकी सभ्यता संस्कृति के बारे में अध्ययन कराया जाना चाहिए ताकि बच्चे पूरे विश्व को एक परिवार के रूप में देख सके और तभी उनके अंदर वसुधैव कुटुंबकम की भावना का विकास हो सकेगा।
९. स्कूलों में होने वाली क्रिया-कलापों में परिवर्तन :
स्कूलों में बच्चों के द्वारा जो भी एक्टिविटीज कराई जाती हैं वह सिर्फ राष्ट्रीयता के आधार पर ही नहीं अंतर्राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करने वाली भी होनी चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए किए गए प्रयास :
विभिन्न व्यक्तियों तथा देशों में समय-समय पर अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास एवं प्रयास के लिए अनेक प्रयास किए गए हैं औरलगातार प्रयास किए भी जा रहे हैं।
१. भारत में प्राचीन काल से ही अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए
वसुधैव कुटुंबकम की भावना को अपनाया गया है।
२. लगभग 620 वर्ष पहले पिरेड्यूवस ने अंतर्राष्ट्रीयता की शिक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना का सुझाव दिया थाI वो इन विद्यालयों के द्वारा अंतर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास करना चाहते थे।
३. 1912 में श्रीमती एन्ड्रयूज ने एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन करने का प्रयास किया था।
४. 1914 ईस्वी में अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा विकास को राष्ट्र संघ में सम्मिलित करने का प्रयास किया गया।
५. प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया गया और द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात 1945 में एक अंतर्राष्ट्रीय संघ की स्थापना की गईI जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ के नाम से जाना जाता है।
६. इस संघ ने अंतरराष्ट्रीय सद्भावना को विकसित करने के लिए यूनेस्को नाम की संस्था स्थापित कीI इस संस्था का उद्देश्य शिक्षा के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना को विकसित करके विश्व-शांति स्थापित करना है।
७. अपने उद्देश्यों की प्रप्ति के लिए यूनेस्को तब से लेकर अब तक अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए लगातार निम्न कार्य कर रहा है:
(.) यह विश्व के सभी पिछड़े हुए देशों से निरक्षरता एवं अज्ञानता समाप्त करने के लिए प्रयासरत हैI जैसे- सर्व शिक्षा अभियान इसका वर्तमान क्रिया-कलाप है।
(..) यह संस्था प्रत्येक राष्ट्र के साहित्य-विज्ञान, संस्कृति एवं कला को अन्य राष्ट्रों के निकट पहुंचाने का कार्य करती हैI जिससे कि प्रत्येक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र की संस्कृति एवं साहित्य के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
(...) यह संस्था पिछड़े हुए राष्ट्रों के स्कूलों को आर्थिक सहायता भी प्रदान करती है।
(....) यूनेस्को रेडियो, टेलीविज़न इत्यादि के माध्यम से भी जनसाधारण में अंतर्राष्ट्रीयता के दृष्टिकोण को विकसित करने का प्रयास करती है।
(.....) इस प्रकार यूनेस्को अंतर्राष्ट्रीयता की शिक्षा और शांति के प्रयास की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा हैI संयुक्त राष्ट्र संघ के अधीन यूनेस्को के अलावा भी कई और परिषद है और एजेंसीया है जो अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैI
जैसे : 1. अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय
2.संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय मध्य निवेश कार्यक्रम
3.संयुक्त राष्ट्र शिशु निधि कार्यक्रम (UNICEF)
4.संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम
5.संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम
6.संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम
7.अंतर्राष्ट्रीय विकास संघ
8.अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन
9.अंतर्राष्ट्रीय रेड क्रॉस संगठन
10.विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO)
दूरस्थ शिक्षा (DISTANCE LEARNING)
अर्थ एवं परिभाषा :
दूरस्थ शिक्षा जैसा कि शब्द से ही स्पष्ट है कि दूर से शिक्षा की व्यवस्था करना अर्थात दूरस्थ शिक्षा वह शिक्षा है जिसमें शिक्षा देने वाले तथा शिक्षा प्राप्त करने वाले के बीच एक दूरी बनी रहती है।
दूरस्थ शिक्षा अपने आप में एक चुनौती है, एक आंदोलनहै जिसका ध्येय यह है कि शिक्षा सभी तक पहुंचेI दूरस्थ शिक्षा में सिखाने की प्रक्रिया शिक्षक द्वारा ना होकर दूर-संचार के माध्यमों के द्वारा होती हैI इस संबंध में कुछ विद्वानों की परिभाषाएं कुछ इस प्रकार है:
बी०होल्मबर्गकेअनुसार :
“ दूरस्थ शिक्षा अधिगम के कई प्रकारों में से एक प्रकार है जो कक्षा में अपने छात्रों के साथ उपस्थित अध्यापकों के निरंतर तत्कालिक निरीक्षण से रहित तथा जिनमें वे सभी शिक्षण विधियां समाहित रहती हैं जिनमें मुद्रण यांत्रिक इलेक्ट्रॉनिक तकनीको के द्वारा शिक्षण किया जाता हैI”
मालकोम एडी सेशिया :
“ दूरस्थ शिक्षा का अभिप्राय यह है कि सीखने तथा सिखाने की वह प्रक्रिया जिसमें स्थान व समय के आयाम सीखने और सिखाने के मध्य हस्तक्षेप नहीं करते हैंI”
दूरस्थ शिक्षा की विशेषताएं :
दूरस्थ शिक्षा की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं :
(.) यह शिक्षा-प्रणाली लचीली सरल सुलभ व कम खर्चीली है।
(..) इसमें गुरु व शिष्य एक दूसरे के आमने-सामने नहीं होते।
(...) यह शिक्षा-प्रणाली प्रौद्योगिकी के आधुनिक उपकरणों पर निर्भरहै।
(....) इस प्रणाली में छात्र अपनी योग्यता व आवश्यकतानुसार व्यक्तिगत ढंग से अध्ययन करता है।
(....)इसमें संपर्क-सूत्र आयोजित करके विद्यार्थियों की कठिनाइयों को दूर किया जाता है।
(.....) इसका पाठ्यक्रम मुख्य रूप से मुद्रित सामग्री के रूप में प्रेषित किया जाता है।
(......) यह प्रणाली (दूरस्थ शिक्षा) घर बैठे महिलाओं श्रमिकों और उपेक्षित क्षेत्रों के लोगों तथा शिक्षा से वंचित लोगों के लिए उपलब्ध कराई जाती है।
(.......) संविधान में उल्लिखित शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से दूरस्थ शिक्षा के कार्यक्रम को संचालित किया जा रहा है।
(........) भारत की अधिकांश जनसंख्या गांवों व सुदूर क्षेत्रों में बसती है जहां पर शिक्षा पहुंचाना सुगम कार्य नहीं हैI उन क्षेत्रों में दूरस्थ शिक्षा का कार्यक्रम पहुंचाया जा सकता है।
औपचारिक व अनौपचारिक अभिकरण में अंतर
औपचारिक अभिकरण :
- औपचारिक अभिकरण के द्वारा बालकों के आचरण को परिवर्तित करने के लिए पूर्व नियोजित योजना बनाकर कार्य व्यवस्थित किया जाता हैI
- इन अभिकरणो को निश्चित ढांचे के अनुसार पहले से ही निर्धारित किया जाता हैI
- इस अभिकरण में विषय निश्चित होते हैं तथा लक्ष्य व पाठ्यक्रम भी निश्चित होता हैI
- इनकी शिक्षा कुछ विशेष व्यक्तियों द्वारा दी जाती हैI
- इस अभिकरण में शिक्षा का स्थान भी निश्चित होता है और परीक्षा भी निश्चित जगह पर ही ली जाती है।
- औपचारिक अभिकरण में स्कूल सबसे प्रमुख हैI इसके अतिरिक्त पुस्तकालय, वाचनालय, आर्टगैलरी इत्यादि इसमें आते हैं।
अनौपचारिक अभिकरण :
- अनौपचारिक अभिकरण में बालक के आचरण को अप्रत्यक्ष तथा आकस्मिक ढंग से परिवर्तित किया जाता हैI
- यह अभिकरण पूर्व निर्धारित नहीं होते हैंI
- अनौपचारिक में विषय तो निश्चित होता है परंतु उनका कोई समय निश्चित नहीं होताI
- इनमें समस्त प्रकृति एवं समस्त विश्व ही इनका शिक्षक होता हैI
- इसका कोई स्थान निश्चित नहीं होता घर बैठे ही यह शिक्षा ली जाती हैI
- इसमें परिवार प्रमुख होता हैI इसके अतिरिक्त समुदाय पास-पड़ोस, युवा-संगठन, समाज आदि आते हैं।
शिक्षा का विषय क्षेत्र(SCOPE OF THE EDUCATION) :
OR
(RELATIONSHIP WITH OTHER DISCIPLINE) :
शिक्षा का विषय क्षेत्र बहुत व्यापक हैI यह संपूर्ण विश्व ही एक विद्यालय हैI जिसमें हम विभिन्न प्रकार के विभिन्न विषयों की शिक्षा ग्रहण करते हैंI इनके विषय क्षेत्र में निम्नलिखित विषय आते हैंI सबका संबंध शिक्षा से है जैसे:
1.शिक्षा का दर्शन
- शिक्षा का समाज शास्त्र
- शिक्षा का मनोविज्ञान
- शिक्षा का इतिहास
- शिक्षा तकनीकी
- भिन्न-भिन्न राष्ट्रों की तुलनात्मक शिक्षा
- शिक्षा संबंधी विभिन्न समस्याएं
- शिक्षा प्रशासन
- शैक्षिक मूल्यांकन
- शिक्षा में नवाचार इत्यादि उपर्युक्त सभी विषयों का संबंध शिक्षा से हैI शिक्षा एक प्रक्रिया है जो मानव के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास मे हर तरह से महत्वपूर्ण हैI मानव के संपूर्ण विकास के लिए उसे हर विषय की जानकारी होना आवश्यक हैI हर क्षेत्र में विकास जरूरी हैI तभी एक मानव संपूर्णता को प्राप्त कर सकता हैI इसीलिए शिक्षा का विषय क्षेत्र अत्यंत व्यापक हैI जो मानव से हर प्रकार से संबंधित है।
आदर्शवाद( IDEALISM)
अर्थ एवं परिभाषा :
आदर्शवाद की उत्पत्ति प्लेटो के अध्यात्मिक सिद्धांत से हुई हैI जिसका अर्थ है :
“अंतिम वास्तविकता या विचारवाद”
विचारवाद को प्रत्ययवाद भी कहते हैंI प्लेटो का कहना है कि समस्त संसार नष्ट हो जाता है परंतु एक विचार है जो सदैव जीवित रहता हैI इसी आदर्शवाद को भारतीय दर्शन में इस तरह परिभाषित किया गया है
“दृश्यते अनेन इति दर्शनम"
अर्थात जिसके द्वारा सत्य के दर्शन किए जाए उसे दर्शन कहते हैंI भारतीय दार्शनिकों का विश्वास है कि यह संसार नश्वर है मन की अभिव्यक्ति का साकार रूप है और परिवर्तनशील है जबकि सत्य वास्तविक है शाश्वत है और सदैव रहने वाला है।
परिभाषा :
एण्डरसन के अनुसार :
“ आदर्शवाद मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष पर बल देता है इसका कारण है कि आध्यात्मिक मूल्य मनुष्य और जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैI आदर्शवादियों का विश्वास है कि मनुष्य अपने असीमित मानस से प्राप्त करता हैI वे मानते हैं कि व्यक्ति और संसार दोनों बुद्धि की अभिवृत्तियाँ हैI”
- आदर्शवाद की तत्व मीमांसा : आदर्शवाद के समर्थक दार्शनिक यूं तो अलग-अलग विचार रखते हैं परंतु इन दो बातों पर एकमत हैं :
१. ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता एवं अंतिम सत्य है।
२. मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य आत्मा परमात्मा के स्वरूप को समझना तथा इसके नियम आवश्यक आदर्शों एवं नैतिक मूल्यों का पालन करना।
इस तरह आदर्शवाद के तत्व मीमांसा के आधार पर आदर्शवाद के पाश्चात्य विचारकों के विभिन्न सिद्धांत सामने आते हैंI
प्रकार |
प्रवर्तक |
तत्व |
नैतिक आदर्शवाद |
प्लेटो |
विचारवाद |
बहुतत्ववादी आदर्शवाद |
लेमनीज |
चिरअनूप |
आत्मनिष्ठ आदर्शवाद |
बर्कले |
आत्मा |
बुद्धि आदर्शवाद |
कान्ण्ट |
बुद्धि |
निरपेक्ष आदर्शवाद |
हीगल |
आत्मा और वस्तु |
- आदर्शवाद की ज्ञान मीमांसा:
विचारों की दैवीय व्यवस्था आत्मा परमात्मा के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है।
ज्ञान ही विचार के स्वरूप में हमें प्राप्त होता है और प्लेटो के अनुसार ज्ञान का आधार विवेक, बर्कले आत्मा को और कान्ण्ट बुद्धि को ज्ञान का आधार मानते हैं।
- आदर्शवाद की आचार मीमांसा : आदर्शवादियों के अनुसार जीवन का अंतिम उद्देश्य आत्मा ही होती हैI इसकी प्राप्ति के लिए नैतिक जीवन की आवश्यकता हैI नैतिक जीवन जीने के लिए भारतीय दार्शनिकों ने सात्सव मूल्यवान जैसे “सत्यम शिवम सुंदरम” पर बल दिया है। जब कि यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने इन मूल्यों की प्राप्ति के लिए संयम, धैर्य न्याय एवं ज्ञान के सद्गुणों को मनुष्य में विकसित करने की आवश्यकता पर बल दिया है।
आदर्शवाद के मूल सिद्धांत :
१. ईश्वर ब्रह्मांड की नियामक सत्ता है।
२. आदर्शवाद में आध्यात्मिक जगत ही सर्वश्रेष्ठ है।
३. आत्मा और परमात्मा का संबंध पवित्र है।
४. आदर्शवादियों का सात्वत मूल्यों में पूर्ण विश्वास हैI (सात्वत मूल्य :
सत्यम शिवम सुंदरम)
५. आदर्शवादियों के अनुसार मनुष्य संसार की सर्वश्रेष्ठ रचना है।
६. आदर्शवादियों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में पूर्ण हैं।
७. संसार की समस्त वस्तुएं एक ही चेतन तत्व से बंधी हुई है। (चेतनतत्व : परमात्मा या ब्रह्म)
शिक्षा में आदर्शवाद :
दर्शन के रूप में आदर्शवाद एक संपूर्णवाद हैI शिक्षा के क्षेत्र में इनका प्रयोग अनेक शिक्षा वैदिक दार्शनिकों ने किया हैI आदर्शवादियों को पूर्ण विश्वास है कि व्यक्ति एक आध्यात्मिक ऊर्जा के साथ जन्म लेता है और शिक्षा इस ऊर्जा को आवेशित व प्रकाशित करती हैI शिक्षा पद्धति कोई भी हो शिक्षक का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए।
आदर्शवाद व शिक्षा के उद्देश्य : व्यक्तित्व का चरम उत्कर्ष एवं आत्मानुभूति।
आदर्शवादियों के अनुसार मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना हैI उसे उसके योग्य ऊंचाइयों तक पहुंचाना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य हैI इसी को व्यक्तित्व का चरम उत्कर्ष कहा जाता है।
मनुष्य एक ऐसी योनि हैI जिसमें व्यक्ति अपनी समस्त शक्तियों एवं क्षमताओं को पूर्ण रूप से विकसित कर सकता हैI यह वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति सामाजिक एवं पारिवारिक वातावरण में रहते हुए अपनी आत्मिक शक्ति को विकसित करके पूर्णता की ओर पहुंच सकता हैI इसी को प्लेटो ने
आत्मानुभूति कहा हैI इस कार्य में शिक्षा ही उसकी सहायता कर सकती है।
चिरंतन मूल्यों की प्राप्ति(Attachment of iternal values) : आदर्श जीवन का आधार शाश्वत व नैतिक मूल्यों की प्राप्ति हैI शिक्षा का उद्देश्य बालक को इन मूल्यों की प्राप्ति में सक्षम बनाना है।
सांस्कृतिक विरासत का संवर्धन : मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत की रक्षा संवर्धन एवं नवीन पीढ़ी को हस्तांतरित करना शिक्षा का प्रमुख कार्य है।
बालक एवं विवेक का विकास : यह संसार विभिन्न प्रकार की वस्तुओं और घटनाओं से भरा पड़ा हैI इसके संचालन कुछ नियम एवं सिद्धांतों के आधार पर होता हैI शिक्षा का उद्देश्य बालक में उस विवेक को जागृत करना हैI जिससे वह सत्य और असत्य का ज्ञान करके इस जगत को व्यवस्थित बनाए रखने में योगदान दे सकें।
पवित्र जीवन की प्राप्ति : फ्रोबेल के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य है :
“ भक्ति-पूर्ण पवित्र एवं कलंक रहित जीवन की प्राप्ति”I आदर्शवादी जीवन की पवित्रता को बहुत महत्व देते हैंI उनका मानना है कि बालक को ऐसा वातावरण देना चाहिए जिससे पवित्र जीवन की प्राप्ति कर सकेI इसको ऐसा वातावरण मिलना चाहिए कि वे पवित्र जीवन जी सके और अध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति कर सके।
आदर्शवाद और पाठ्यक्रम : आदर्शवादियों ने पाठ्यक्रम पर अपने विचार देते समय मानवीय क्रियाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया हैI उनका कहना है कि पाठ्यक्रम के विषय शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक होने चाहिएI पाश्चात्य विचार कों प्लेटो, रॉस, और हार्वर्ड आदि ने पाठ्यक्रम की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की है पर सभी ने एक समानता धारण की हैI मानवीय क्रियाओं को सबने अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया है।
प्लेटो के पाठ्यक्रम संबंधी विचार :
मानव क्रियाये बौद्धिक क्रियाएं कलात्मक क्रियाएं नैतिक क्रियाएं
भाषा,साहित्य,इतिहास, कला और कविता धर्म, अध्यात्म
भूगोल,गणित,विज्ञान शास्त्र,नीतिशास्त्र
रॉस के पाठ्यक्रम संबंधी विचार :
मानव क्रियाये शारीरिक क्रियाएं अध्यात्मिक क्रियाएं
कला कौशल एवं (धार्मिक धर्म और
स्वास्थ्य शिक्षा अध्यात्म शास्त्र)
बौद्धिक नैतिक कलात्मक
(साहित्य,भाषा (नीतिशास्त्र) (ललित कलाएं)
इतिहास,भूगोल,
विज्ञान,गणित)
आदर्शवाद एवं शिक्षण विधियां : आदर्शवादियों का मानना है कि शिक्षा के उद्देश्य महत्वपूर्ण होते हैंI उनकी प्राप्ति का मार्ग कोई भी हो सकता हैI जिस कारण विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न शिक्षण विधियों का प्रयोग किया है।
आदर्शवादी दार्शनिक
क्रम |
आदर्शवादी दार्शनिक |
प्रयुक्त विधियां |
1 |
सुकरात |
प्रश्नोत्तर विधि |
2 |
प्लेटो |
संवाद विधि |
3 |
अरस्तु |
आगमन निगमन विधि |
4 |
हीगल |
तर्क विधि |
5 |
ड्रेकार्तन |
सरल से कठिन की ओर |
6 |
हरबर्ड |
निर्देशन विधि |
इसके अलावा भारतीय दार्शनिकों ने व्याख्यान विधि, वाद-विवाद और संवाद विधि को अपनी शिक्षण का माध्यम बनाया।
प्रकृतिवाद (NATURALISM)
प्रकृतिवाद वह विचार धारा है जो प्रकृति को मूल तत्व मानती हैI इस दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु प्रकृति से ही उत्पन्न होती है और उसी में विलीन हो जाती हैI प्रकृतिवादी मनुष्य को निर्मल प्रकृति वाला मानते हैं और मनुष्य को अपनी प्रकृति के अनुकूल ही स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, शिक्षा मिलनी चाहिएI वे सामाजिक अथवा शासन के कठोर नियमों के विरोधी थेI प्रतिवादी समर्थकों में रूसो का नाम प्रमुख हैI जिनका कहना था प्रकृति के हाथों से आने वाले प्रत्येक वस्तु बहुत अच्छी होती है, शुद्ध होती है और परंतु मनुष्य के हाथ में आकर वह दूषित हो जाती हैI इसके अतिरिक्त उनके समर्थकों में अरस्तु, कान्ण्ट, हॉपस ,बेकन डार्विन, लैमार्क आदि हैं।
प्रकृतिवाद की परिभाषा :
थॉमसलैंग :
“ प्रकृतिवाद आदर्शवाद के विपरीत मन को पदार्थ के अधीन मानता है और विश्वास करता है कि अंतिम वास्तविकता भौतिक है आध्यात्मिक नहींI”
ब्रीसी :
“ प्रकृतिवाद एक प्रणाली है जो कुछ अध्यात्मिक है उसका बहिष्कार ही उसकी प्रमुख विशेषता हैI”
प्रकृतिवाद : प्रकृतिवाद NATURALISM शब्द का हिंदी रूपांतरण है।
NATURAL अर्थात प्रकृतिI
Ism अर्थात वाद, सिद्धांत, प्रणालीI
इस प्रकार प्रकृति से संबंधित सिद्धांत का अध्ययन ही प्रकृतिवाद हैI प्रकृतिवादी शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृति शब्द का प्रयोग दो अर्थों में करते हैं :
१. भौतिक प्रकृति
२. बालक की प्रकृति
भौतिक प्रकृति वाह्य प्रकृति है तथा बालक की प्रकृति का अर्थ है मूल प्रवृत्तियों, आवेग, क्षमताएंI जिन्हें बालक जन्म से अपने साथ लेकर आता है।
प्रकृतिवादी दार्शनिक विचार धारा को विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से स्पष्ट किया है :
थॉमस एंड लैंग :
“ आदर्शवाद के विपरीत मन को पदार्थ के अधीन मानता है और यह विश्वास करता है कि अंतिम वास्तविकता भौतिक है अध्यात्मिकनहींI”
जेन्सवार्ड :
“ प्रकृतिवाद वह सिद्धांत है जो प्रकृति को ईश्वर से पृथक मानता हैI आत्मा को पदार्थ के अधीन करता है और अपरिवर्तनीय नियमों को सर्वोच्चता प्रदान करता हैI”
परिभाषाओ के आधार पर प्रकृतिवाद की विशेषताएं 1. प्रकृतिवाद प्रगति को सर्वोपरि मानता हैI इसके अलावा ईश्वर आत्मा आदि के सत्ता में विश्वास नहीं मानता।
- संसार की उत्पत्ति प्रकृति से हुई है और अंत में सभी कुछ प्रकृति में ही विलीन हो जाना हैI
- यह संसार भौतिक है तथा आध्यात्मिकता का विरोध करता हैI
- आत्मा को पदार्थ के अधीन स्वीकार करता हैI
- सत्य ज्ञान का अनुभव एवं बोध प्राप्त करने में इंद्रियों का अत्यंत महत्व है।
प्रकृति के विभिन्न रूप :
१. पदार्थवादी प्रकृतिवाद
२. यंत्रवादी प्रकृतिवाद
३. जैविक प्रकृतिवाद
प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषताएं :
१. प्रकृति की ओर लौटो
२. पुस्तक ज्ञान का विरोध
३. प्रगतिवादी : शैशव, किशोर, बाल्य, प्रौढ़
४. बालक की प्रधानता
५. बालक की स्वतंत्रता पर बल
६. मनोवैज्ञानिक तत्वों पर बल
शिक्षा का अर्थ : प्रकृतिवादी दर्शन शिक्षा के विविध पहलुओं को नवीनता प्रदान करता हैI उसके अनुसार शिक्षा वह साधन है जो मनुष्य को उसकी प्रकृति के अनुरूप विकास करने, जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाती हैI प्रकृतिवादी शिक्षा को स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया मानते हैंI
रूसो के अनुसार :
“ सच्ची शिक्षा वह है जो व्यक्ति के अंदर प्रस्फुटित होती हैI यह उसकी अंतर्निहित शक्तियों की अभिव्यक्ति है।”
प्रकृतिवाद व शिक्षा के उद्देश्य :
- शिक्षा के उद्देश्य के निर्धारण के संबंध में विभिन्न प्रकृतिवाद विचारक परस्पर एकमत नहीं हैI इस संबंध में उन्होंने अलग-अलग विचार व्यक्त किए हैं जो संक्षेप में निम्नवत है : स्पेंसर के अनुसार : “ जीवन का उद्देश्य इस जगत में सुख पूर्वक रहना हैI जिसे उसने समग्र जीवन कहा हैI”
समग्र जीवन का विश्लेषण वह जीवन की पांच प्रमुख क्रियाओं के माध्यम से करता है :
१. आत्मरक्षा
२. जीवन की मौलिक आवश्यकता की पूर्ति
३. संतुष्टि पालन
४. सामाजिक एवं राजनीतिक संबंधों का निर्वहन
५. अवकाश के समय का सदुपयोग
रूसो के अनुसार :
“ शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य को प्रकृति जीवन जीने के योग्य बनाना हैI वह प्रकृति को ईश्वरीय सृष्टि मानता हैI तथा बालक को ईश्वर की सर्वोच्च रचनाI”
उनका स्पष्ट मत है कि जब तक बालक अपने प्राकृतिक रूप में रहता है तब तक वह सद्गुणी, शुभ तथा श्रेष्ठ है परंतु मानव व समाज के संपर्क में आकर वह निर्गुण हो जाता हैI ईश्वर सभी वस्तुओं को अच्छा बनाता है किंतु मानवीय हस्तक्षेप से वह अनिष्टकारी बन जाती है।
- शिक्षा के उद्देश्य निर्धारण के संबंध में डार्विनवाद विचारक मत्स्य न्याय के सिद्धांत में विश्वास करते हैं जिनके अनुसार प्राणी को स्वयं को जीवित बनाए रखने के लिए वातावरण से निरंतर संघर्ष करना पड़ता हैI जो योग्य व शक्तिशाली होता है वही जीवित रहता है तथा निर्बल नष्ट हो जाता हैI इस प्रकार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बालक को इस योग्य बनाना है कि वह मानव के संघर्षों का सफलतापूर्वक सामना कर सके।
इसी भाग में लैमार्कवादियों का मत है कि शिक्षा वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति को उसके वातावरण तथा परिस्थितियों के अनुकूल बनाने में सहयोग प्रदान करती हैI इस दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य बालक को इस योग्य बनाना है कि वह अपने पर्यावरण तथा परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित कर सकें।
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के शब्दों में शिक्षा का उद्देश्य है कि विकास की गति और तेज करनाI इनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जातीय संस्कृति का आरक्षण, स्थानांतरण तथा वृद्धि होनी चाहिए।
प्रकृतिवाद व पाठ्यक्रम :
प्रकृतिवादी विद्यार्थी शिक्षार्थी को पाठ्यक्रम का आधार मानते हैं उनका कहना है कि पाठ्यक्रम की रूपरेखा शिक्षार्थी की रुचियों, योग्यताओं, क्षमताओं, मूलप्रवृत्तियों, स्वभाविक क्रियाओं, व्यक्तित्व विभिन्ननताओं को ध्यान में रखकर तैयार होनी चाहिएI जिससे वह अपनी अभिरुचियों को स्वतंत्रता पूर्वक विकसित कर सकें और विकास की विभिन्न अवस्थाओं की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए मानव जीवन को पूर्णता के साथ जी सके।
शिक्षण विधि : शिक्षण विधियों के क्षेत्र में प्रकृतिवादी विचारधारा बहुत महत्वपूर्ण हैI उनका मानना है कि शिक्षण में छात्रों की रुचियों, योग्यताओं और अभिक्षमता का पूरा ध्यान रखना चाहिएI स्वतंत्र ढंग से सीखने में छात्रों की सहायता करनी चाहिएI ऐसा करने से बालक अपनी प्रकृति के अनुरूप स्वाभाविक ढंग से विकास करने में समर्थ होगाI संक्षेप में प्रकृतिवादी शिक्षण विधियों को निम्नवत ढंग से प्रकट किया जा सकता है :
१. स्वअधिगमविधि : प्रकृतिवादी इंद्रियों को ज्ञान का द्वार मानते हैंI पुस्तक की शिक्षा का विरोध करते हैंI इसलिए बालकों को ज्ञानेंद्रियों के विकास के लिए स्वअधिगम विधि का समर्थन करते थेI
२. करके सीखना : प्रकृतिवादी करके सीखना पर विशेष बल देते हैंI उनके अनुसार बालक स्वयं कुछ कर के अत्यधिक सीख सकता है।
३. खेल विधि : शैशव अवस्था खेल की अवस्था मानी जाती हैI खेल-खेल में बालक बहुत कुछ समझ सकता है और ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
४. भ्रमण विधि/प्रत्यक्ष अनुभव विधि : प्रकृतिवादी विद्यालय की चारदीवारी से बाहर निकलकर विभिन्न स्थानों पर जाकर तथा प्राकृतिक घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देखकर सामाजिक जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव को प्राप्त कर शिक्षा प्राप्त करने का समर्थन करते थे।
प्रकृतिवाद और शिक्षण : प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षण निरीक्षण कार्य, पथ-प्रदर्शक, बाल प्रकृति ज्ञाता ,भ्रमणकर्ता, मित्रवादी तथा प्रायोगिक ज्ञान से भिन्न होता हैI वह छात्रों पर किसी बात तथा किसी तथ्य को नहीं थोपता बल्कि वह अपने छात्रों को स्वच्छता विकास करने हेतु प्रेरित करता हैI बालकों में विकास हेतु उपयुक्त पर्यावरण का सृजन करता है अर्थात शिक्षा का कार्य केवल बालक को विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करना हैI प्रकृतिवाद विचारक प्रकृति को ही वास्तविक शिक्षक मानते हैं।
प्रकृतिवाद व शिक्षार्थी : प्रकृतिवाद के अंतर्गत पूरी शिक्षण प्रक्रिया का केंद्र बिंदु बालक अर्थात शिक्षार्थी होता हैI शिक्षार्थी को प्रकृति के अनुकूल ढालने की साधना होती हैI प्रकृतिवादी विचारक शिक्षार्थी को ईश्वर की श्रेष्ठ व पवित्र रचना मानते हैं किंतु सामाजिक कृतियां तथा सामाजिक कलाओं में फंसकर बालक का स्वाभाविक विकास रुक जाता हैI उसकी स्वतंत्र प्रकृति का दमन कर समाज में विद्यमान बुराइयां विद्यार्थी के अंदर व्याप्त हो जाती हैंI इसी कारण शिक्षार्थी को उसके कार्य योग्यता, क्षमता और स्वाभाविक विकास को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था दी जानी चाहिए।
अनुशासन : प्रकृतिवादी विचारकों का मानना है कि गलत कार्यों के लिए प्रकृति स्वयं दंडित करेगी तथा अच्छे कार्यों के लिए पुरस्कृत करेगी किंतु बहुत से विचारकों ने प्राकृतिक परिणामों द्वारा अनुशासन को स्वीकार नहीं किया है।
विद्यालय : विद्यालय के स्वरूप व व्यवस्था के संबंध में प्रकृतिवादियों का कहना है कि विद्यालय को प्रकृति के अनुकूल होना चाहिए।
प्रकृतिवाद का शिक्षा में योगदान :
१. अनुभव पर बल (Emphasis on experience)
२. बालक के मनो-विज्ञान पर बल (Emphasis on child psychology)
३. बाल केंद्रीत शिक्षा पर बल
४. शिक्षा में बालक की प्रमुखता पर बल
५. प्रकृति की ओर लौटो इस पर प्रमुख बल दिया गया है।
प्रयोजनवाद
नामकरण :
चार्ल्ससेण्डर्सपीयर्सकेअनुसार : अर्थक्रियावाद/व्यवहारवाद
विलियम्स : अनुभववाद/कलावाद
जॉनडिवी : साधनवाद/ प्रयोगवाद
किलपैट्रिक : प्रयोजनवाद
प्रयोजनवाद या व्यावहारिकवाद एक भौतिक वादी दर्शन हैI प्रयोजनवाद शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के
“प्रैग्मा” शब्द से हुई हैI जिसका अर्थ है क्रिया अथवा किया गया कार्य कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार यह शब्द ग्रीक भाषा के “
प्रेग्माटिकोस” शब्द से लिया गया हैI जिसका अर्थ है व्यावहारिकता अथवा उपयोगिताI अतः इस विचारधारा के अंतर्गत क्रियाशीलता तथा व्यावहारिकता को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। प्रयोजनवादियों का मानना है कि पहले किया गया कार्य या कोई भी किया गया प्रयोग पहले होता है फिर उसके फल के अनुसार विचारों अथवा सिद्धांतों का निर्माण होता हैI इसीलिए प्रयोजनवाद को प्रयोगवाद अथवा फलवाद के नाम से भी पुकारा जाता हैI प्रयोजनवाद को फलवाद इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस विचारधारा के अनुसार प्रत्येक क्रिया का मूल्यांकन उसके परिणाम अथवा फल के अनुसार निश्चित किया जाता है।
प्रयोजनवाद का नारा है परिवर्तन इस दृष्टि से कोई भी सत्य स्थानीय होकर सदैव परिवर्तन की अवस्था में हैI अतः प्रयोजनवाद का दावा है कि सत्य सदैव परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता हैI प्रयोजनवाद को प्रयोगवाद इसलिए कहा जाता है क्योंकि प्रयोजनवादी केवल प्रयोग को ही सत्य की श्रेणी में रखते हैंI उनके अनुसार सत्य वास्तविकता, अच्छाई तथा बुराई सब एक सापेक्ष शब्द हैI यह पूर्व निश्चित नहीं है अपितु इन सबको मानव अपने प्रयोग तथा अनुभवों के द्वारा सिद्ध करता हैI अतः प्रयोजनवाद के अनुसार वही बातें सत्य हैं जिन्हें प्रयोग के द्वारा सिद्ध किया जा सकेI प्रयोजनवादियों का यह विश्वास है कि जो विचार अथवा सिद्धांत सत्य थेI यह आवश्यक नहीं है आज भी वह सत्य ही होI अतः प्रयोजनवाद आदर्शवादियों की भांति पूर्व निश्चित तथा प्रचलित सिद्धांतों के अनुसार निरंतर आदर्शों तथा मूल्यों को स्वीकार ना करके प्रत्येक निश्चित दर्शन का विरोध करते हैं तथा इस बात पर जोर देता है कि केवल वही आदर्श तथा मूल्य सत्य है जिसका परिणाम किसी काल तथा परिस्थिति में मानव के लिए व्यावहारिक लाभदायक फलदायक तथा संतोष जनक होI प्रयोजनवाद के मुख्य प्रवर्तक C. B. Pearce William James, John dewey है।
संक्षेप में एक दार्शनिक विचारधारा के रूप में प्रयोजनवाद किसी निश्चित शाश्वत मूल्यों विचारों में विश्वास नहीं करता प्रयुक्त व्यक्ति को स्वयं वैज्ञानिक ढंग से इसके निर्माण पर बल देता हैI इसकी मान्यता है कि मूल्य विचार, आदर्श समय-समय पर बदलते रहते हैंI मनुष्य का चरम लक्ष्य सुख अनुभूति है और इस संसार में आध्यात्मिकता नाम की कोई चीज नहीं है।
प्रेट के अनुसार “ प्रयोजनवाद हमें अर्थ का सिद्धांत सत्य का सिद्धांत ज्ञान का सिद्धांत तथा वास्तविकता का सिद्धांत देता हैI”
विलियम जेम्स के अनुसार
“ प्रयोजनवाद मस्तिष्क का एक स्वभाव और अभिवृत्ति है यह विचार और सत्य की प्रगति का सिद्धांत है और अंत में यह वास्तविकता का सिद्धांत देता हैI”
रोमन के अनुसार
“ प्रयोजनवाद के अनुसार सत्य को उसके व्यवहारिक परिणामों के द्वारा जाना जाता है इसलिए सत्य निरपेक्ष ना होकर व्यक्तिगत अथवा सामाजिक समस्या है।”
प्रयोजनवाद के सिद्धांत :
- सत्य की परिवर्तनशील प्रकृतिI
- वर्तमान तथा भविष्य में विश्वासI
- बहुतत्व वाद मे विश्वासI
- उपयोगिता के सिद्धांत पर बलI
- सत्य का निर्माण उसके फल से होता हैI
- सामाजिक प्रथाओं एवं परंपराओं का विरोधI
- वास्तविकता निर्माण की अवस्था में होती हैI
- समस्याएं सत्य के निर्माण में एक प्रेरणा के रूप में
- लचीलेपन में विश्वास
- क्रियाकामहत्व
प्रयोजनवाद एवं शिक्षा :
शिक्षा के उद्देश्य
- गतिशील निर्देशनI
- नवीन मूल्यों का निर्माणI
- सामाजिक कुशलता का विकासI
- अधिक से अधिक विकासI
- जीवन के रूप मेंI
- पूर्व निश्चित उद्देश्यों का विरोधI
शिक्षार्थी पाठ्य चर्चा एवं प्रयोजनवाद :
CO-CURRICULUM OF PRAGMATISM
उपयोगिता रुचि अनुभव एकीकरण
का का का का
सिद्धांत सिद्धांत सिद्धांत सिद्धांत
Principle Principle Principle Principle
Of of of of Utility Interest Experience Integration
शिक्षण विधियां :
- सीखने की उद्देश्य पूर्ण प्रक्रिया का सिद्धांतI
- अनुभव द्वारा सीखने का सिद्धांतI
- सीखने की प्रक्रिया में एकीकरण का सिद्धांतI
- योजना पद्धति: किलपैट्रिकI
- समस्या समाधान विधिI
किलपैट्रिक की योजना पद्धति :
John Dewey के प्रिय शिष्य
Kilpatrick ने शिक्षा को एक शिक्षण पद्धति प्रदान की इस पद्धति को योजना पद्धति अर्थात
Project Method के नाम से पुकारा जाता हैI इसमें समस्या समाधान किया जाता है इसलिए इसे समस्या समाधान विधि भी कहते हैंI इसमें कार्य को शिक्षक नहीं करता बल्कि बालक को एवं छात्रों को दे दिया जाता हैI वे स्वयं इसे करके सीखता हैI शिक्षक का कार्य केवल इतना ही है कि वह बालक के सामने ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करें जिससे वे समस्या को पहचानने और समस्या को पहचानने के बाद प्रत्येक बालक को प्रयोग तथा अनुभव करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाता हैI प्रत्येक बालक एक दूसरे के सहयोग से समस्या को सक्रिय रूप से सुलझाने का प्रयास करते हैंI अंत में सब समस्या सुलझ जाती है। तब निश्चित परिणामों को प्राप्त करके नवीन मूल्यों का निर्माण किया जाता है।
प्लेटो (PLATO)
प्लेटो का जन्म 427 ईसा पूर्व में एथेंस में एक कुलीन परिवार में हुआ था।
माता का नाम : परीकिटयानी
पिता का नाम : अरिस्टन
प्लेटो का वास्तविक नाम अरिस्टूप्लीज थाI
उनके चौड़े कंधों के कारण उन्हें प्लेटो का नाम दिया गया था।
लगभग 20 वर्ष की आयु में प्लेटो ने सुकरात का शिष्युत्व ग्रहण किया परंतु 399 ईसा पूर्व उसके जीवन में एक नया मोड़ आयाI प्लेटो ने अपने जीवन में यूनान के इतिहास का एक अत्यंत नाजुक दौर देखा थाI उसने अपनी आंखों से एथेन्स को स्पार्टा के सामने घुटने टेकते हुए देखा थाI उसने अपने प्रियगुरु और अपनी दृष्टि में श्रेष्ठतम मानव सुकरात को विष का प्याला पीते हुए देखाI उसने एथेंस मे नैतिक आदर्शों का पराभाव देखा और उसने सार्वजनिक क्षेत्र के इन बुराइयों को सही करने का निश्चय किया।
प्लेटो बाद में प्राचीन यूनानी राजनीतिक दार्शनिक बन गएI प्लेटो को राजनीतिक चिंतन का जनक कहा जाने लगा क्योंकि उन्होंने ही राज्य का सर्वप्रथम व्यवस्थित अध्ययन प्रारंभ कियाI प्लेटो आदर्शवादी विचारधारा के प्रथम प्रवक्ता रहेI जिन्होंने राज्य की सर्वव्यापकता तथा अनिवार्यता का समर्थन किया वस्तुत : उन्होंने राज्य को नैतिक आधार प्रदान कियाI प्लेटो की रचनाओं में निगमनात्मक पद्धति का व्यापक प्रयोग दिखता हैI उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना
“द रिपब्लिक” हैI जिसमें राजनीतिक सिद्धांतों को एक आदर्श राज्य की परिकल्पना में प्रतिपादित किया गया हैI प्लेटो आदर्शवादियों के राजनीतिक विचारक भी रहेI उन्होंने विचारकों के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य भी कियाI प्लेटों को परिवर्तनवादी कहने का कारण यह भी है कि उन्होंने एक व्यवस्था को बिल्कुल परिवर्तित करते हुए उसके स्थान पर एक नवीन व्यवस्था को प्रतिस्थापित करने का सैद्धांतिक प्रयास कियाI प्लेटो आदर्शवादी तथा क्रांतिकारी चिंतक ही नहीं एक नारीवादी चिंतक भी रहे।
प्लेटो का शिक्षा दर्शन :
- प्लेटो के शिक्षा संबंधी विचार उसकी कृतियों “द रिपब्लिक” तथा “द लाग” में प्रकट होते हैं।
- द रिपब्लिक शिक्षा संबंधी विचारों पर सबसे पहली पुस्तक हैI
- द रिपब्लिक में अज्ञानता की सारी बुराइयों की जड़ बताई गई।
- द रिपब्लिक की रचना प्लेटो ने यौवन काल में की थी।
- ज्यो-ज्यो प्लेटो के विचार परिवर्तित होते गए त्यो- त्यो वह शिक्षा संबंधी विचारों में परिवर्तन करते गए।
- प्लेटो समाज के कल्याण का आधार शिक्षा को ही बताते हैं।
शिक्षा का अर्थ :
- प्लेटो ने शिक्षा को नैतिक प्रशिक्षण की प्रक्रिया माना है।
- सुकरात ने सद्गुणों को ज्ञान के रूप में देखा और उसके अनुसार ज्ञान ही सद्गुण है।
- प्लेटो ने सुकरात के विचारों को आगे बढ़ाते हुए ज्ञान और सद्गुण में भेद किया।
- प्लेटो के अनुसार प्रमुख सद्गुण 4 हैं बुद्धिमत्ता,साहस,संयम और न्याय।
- सामाजिक न्याय की स्थापना किस प्रक्रिया द्वारा की जाती है वहशिक्षा ही है।
- जो गुण समाज के लिए आवश्यक है वही व्यक्ति के लिए भी आवश्यक है।
- सभी काल के प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक ने प्लेटो की इस सूची का विरोध किया।
- अपनी अंतिम पुस्तक “राज नियम” में वह कहते है कि “शिक्षा से मेरा अभिप्राय उस प्रशिक्षण से है जो शिशुओं में उचित आदतों के निर्माण के द्वारा सद्गुणों को उत्पन्न करता हैI”
शिक्षा के कार्य तथा उद्देश्य :
प्लेटो के अनुसार प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
प्लेटो के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य पूर्णता की अवस्था को प्राप्त करना है।
उनके अनुसार शिक्षा का समस्त कार्य ज्ञान को रखना नहीं वरन उस सर्वोत्तम गुणों को बाहर निकालना है जो आत्मा में अंतर्निहित है और यह कार्य आत्मा को लक्ष्य की ओर निर्देशित करके हो सकता है।
संक्षेप में प्लेटो के अनुसार शिक्षा के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :
- राज्य की एकता की रक्षा करनाI
- गुरु अथवा नागरिक दक्षता का विकास करनाI
- सौंदर्यात्मक संवेदन शीलता का विकास करनाI
- सत्यम शिवम सुंदरम के प्रति प्रेम उत्पन्न करना तथा अनुभूति प्राप्त करनाI
- व्यक्ति के व्यक्तित्व का सामंजस्य पूर्ण विकास करनाI
- बालकों के सामंजस्य पूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए उन्हें तैयार करना।
- स्वाशासित व्यक्तियों का निर्माण करना।
पाठ्यक्रम :
पाठ्यक्रम के संबंध में प्लेटो ने शिक्षा को तीन भागों में बांटा है एवं उसके अनुरूप पाठ्यक्रम निर्धारण पर बल दिया है :
- प्राथमिकशिक्षा: प्रारंभिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में खेलकूद, व्यायाम, संगीत, गणित, इतिहास तथा विज्ञान को स्थान प्रदान किया।
- माध्यमिक शिक्षा: इस स्तर पर पाठ्यक्रम के अंतर्गत प्लेटो ने गणित, कविता, संगीत, शिष्टाचार, धर्मशास्त्र एवं सैन्य प्रशिक्षण पर बल दिया।
- उच्चशिक्षा: इस स्तर पर पाठ्यक्रम के अंतर्गत प्लेटो ने दर्शन नीति शास्त्र मनोविज्ञान,कानून एवं आध्यात्मिक शिक्षा को महत्व दिया।
शिक्षणविधि : प्लेटो ने शिक्षण विधियों में अपने गुरु सुकरात की संवाद विधि को ही अपनाया थाI संवाद से तात्पर्य विचारवाद व्यक्तियों का वाद-विवाद तथा तर्क युक्त स्पष्टीकरण से हैI इसके अलावा प्लेटो ने बच्चों की शिक्षा के लिए खेल-विधि, अनुकरण विधि एवं कहानी विधि को अपनाने पर बल दिया थाI उच्च शिक्षा पर प्लेटो ने स्वअध्याय विधि तथा वार्तालाप विधि को स्वीकार करने पर बल दिया था।
शिक्षक : प्लेटो स्वयं द्वारा स्थापित एकादमी मे स्वयं एक शिक्षक के रूप में कार्य कियाI इस कारण उन्होंने अपेक्षा की थी कि सभी शिक्षकों में आदर्शगुणों का समावेश होना चाहिए और शिक्षक के रूप में अपने कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक तथा ईमानदारी से करना चाहिएI जिससे दूसरे लोग भी इसका अनुसरण कर सके।
अनुशासन : प्लेटो दंडात्मक अनुशासन के समर्थक प्रतीत होते हैंI इसलिए वे बालकों से अपेक्षा करते हैं कि वह शिक्षक के आदेशों का अनुपालन करें यदि छात्र अनुशासनहीनता करे तो शिक्षक को उसे दंडित करना चाहिए प्लेटो का विश्वास है कि कठोर नियंत्रण एवं अनुशासित जीवन जीने से ही सद्गुणों का विकास संभव है।
रूसो (ROUSSEAU)
JEAN – JACQUES ROUSSEAU का जन्म 1712 ईस्वी में जेनेवा में हुआ थाI उनके पिता एक घड़ीसाज थे। उनकी जन्म के बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया थाI अतः उनकी चाची ने उनका पालन पोषण कियाI उनके पिता ने उनकी ओर बहुत कम ध्यान दिया 6 वर्ष की अवस्था में ही वह उपन्यास पढ़ने लगे थेI जिसने उनकी मूल-प्रवृत्तियों एवं आत्म अभिव्यक्ति की भावना को उद्दीप्त कियाI रूसो को विद्यालय की शिक्षा अपनी ओर आकर्षित ना कर सकी क्योंकि उस समय की विद्यालय की शिक्षा में कठोरता बहुत अधिक थीI इसके अतिरिक्त विद्यालय में अनुशासन की स्थापना हेतु कठोर दंड दिया जाता थाI इन परिस्थितियों में रूसो के शैक्षिक विचारों पर बहुत प्रभाव पड़ा निरउद्देश्य और आवारागर्दी का जीवन व्यतीत करने के कारण समाज ने रूसो पर झूठे आरोप लगाए जिससे वह क्षुब्ध होकर वह फ्रांस चले गए वहां जाकर बीमार पड़ गएI इसी बीमारी ने उनकी साहित्यिक अध्ययन की ओर रुचि बढ़ा दीI उन्होने प्लेटो , हाप्स आदि के ग्रंथों का अध्ययन किया तथा स्वयं भी लेखक बनने का प्रयास कियाI 1750 ईस्वी में लेखन प्रारंभ कियाI उनकी मृत्यु 1778 ईसवी में फ्रांस में हुई।
उनके मरने के 15 वर्ष पश्चात उन्हें महान व्यक्ति तथा क्रांतिकारी होने का गौरव प्राप्त हुआ।
रूसो की प्रमुख रचनाएं :
- एमिल (1762)
- सोशल कॉन्ट्रैक्ट (1762)
- दी प्रॉमिस ऑफ आर्ट एंड साइंस (1750)
- सोशल इनिक्वालिटी (1754)
- दी न्यू हेलॉयज (1761)
रूसो के शैक्षिक विचार :
- रूसो ने तत्कालिक शिक्षा की आलोचना करते हुए उसे कृत्रिम बताया था।
- उसने शिक्षा में सुधार के लिए प्राकृतिक सिद्धांतों एवं विचारों का प्रतिपादन किया था।
- वह बालक को ऐसी शिक्षा देने के पक्षपाती थे जो उसके मस्तिष्क, शरीर और मन को स्वतंत्रता प्रदान करें एवं स्वतंत्र रूप से उसका विकास करें।
शिक्षा का अर्थ :
रूसो एक प्रकृतिवादी विचारक थे और उनकी शिक्षा निषेधात्मक थीI वह 12 वर्ष की आयु तक के बालक को औपचारिक शिक्षा देने के पक्ष में नहीं थेI उन्होंने बालक को शिक्षा प्रक्रिया का मुख्य अंग बताया।
शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए रूसो ने लिखा है
“ सच्ची शिक्षा वह है जो व्यक्ति के अंदर से प्रस्फुटित होती है यह उसकी अपनी अंतर्निहित शक्तियों की अभिव्यक्ति है ”
निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ चिरकाल निष्क्रियता नहीं है वरन इससे भिन्न हैI यह सद्गुण नहीं देती यह दुर्गुणों से दूर रखती हैI यह सत्य को प्रकट नहीं करतीI यह त्रुटि से बचाती हैI यह बालक को उस मार्ग की ओर उन्मुख करती है जो उसे सत्य की ओर ले जाएगा।
शिक्षा के उद्देश्य :
रूसो के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं :
- जीवन में पूर्णताI
- मौलिक एवं स्वभाविक शक्तियों का विकासI
- मौलिक उद्देश्य
- व्यवहारिक ज्ञान की प्राप्ति
- मस्तिष्क तथा संवेगो का विकास।
पाठ्यक्रम :
रूसो ने मानव जीवन को चार अवस्थाओं में बांटा हैI पाठ्यक्रम निर्धारण में इन चारों अवस्थाओं को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम प्रस्तावित किया गया है:
- 1. 1 से 5 वर्षकीशिक्षा: यह मानव जीवन की प्रथम अवस्था है जिसे शैशवावस्था कहा जाता हैI रूसो के अनुसार इस अवस्था में बच्चों को प्रतिबंधों से मुक्त रखना चाहिएI शारीरिक शिक्षा बौद्धिक एवं नैतिकता पर थोड़ा ध्यान देना चाहिए।
- 2. 5 से 12 वर्षतककीशिक्षा : यह जीवन का अत्यधिक विषम काल होता हैं। रूसो के अनुसार बच्चों के मस्तिष्क में कुछ भरने के बजाय उन्हें अनुभव द्वारा सीखने देना चाहिएI इस अवस्था में बच्चों में प्रकृति की तरफ रुचि बढ़ानी चाहिए और प्राकृतिक रुचि के माध्यम से बौद्धिक प्रशिक्षण देना चाहिए।
- 3. 12 से 15 वर्ष तक की शिक्षा: यह जीवन का वह काल है जिसमें बालक की शारीरिक ऊर्जा उसकी आवश्यकता से अधिक होती हैI बालक की इंद्रियां एवं शरीर पुष्ट हो जाता हैI रूसो के अनुसार सीखने की उत्सुकता अथवा रुचि एकमात्र पथ-प्रदर्शक का कार्य करती है।
- 4. 15 से 20 वर्ष की शिक्षा: यह काल बच्चों में नैतिक शिक्षा देने का हैI रूचि के अनुसार इस अवस्था में बालक की शरीर की इंद्रियां एवं मस्तिष्क का निर्माण हो चुका होता हैI रुसो ने इस अवस्था के पाठ्यक्रम में संगीत तथा कामशास्त्र को भी स्थान दिया है।
शिक्षण विधि :
- करके सीखना
- निरीक्षण द्वारा सीखना
- अन्वेषण द्वारा सीखना
- स्वानुमान द्वारा सीखना
- प्रयोग द्वारा सीखना
अनुशासन : रूसो बालक की स्वतंत्रता का समर्थन करते हैं और उस पर किसी भी प्रकार का वह नियंत्रण नहीं चाहतेI उन्होंने प्राकृतिक परिणामों द्वारा अनुशासन के सिद्धांतों के बारे में बताया और उनका मानना था कि प्राकृतिक परिणामों द्वारा ही अनुशासन के सिद्धांतों में विश्वास जागृत किया जा सकता है।
शिक्षक तथा शिक्षार्थी : रूसो ने शिक्षा प्रक्रिया में बालकों को प्रमुख तथा शिक्षक को गौड़ स्थान दिया हैI रूसो ने प्रकृति को ही बालक का सच्चा शिक्षक माना हैI शिक्षक का कार्य केवल इतना होना चाहिए कि वह बालक के स्वाभाविक विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करें।
विद्यालय : रूसो के अनुसार विद्यालय एक कृत्रिम कठोर अनुशासन वाली संस्था है बल्कि विद्यालय ऐसे होने चाहिए जिसमें बालक के विकास के लिए उचित वातावरण प्राप्त हो सकेI बालक को स्वतंत्र वातावरण दिया जाना चाहिए।
भारतीय दर्शन तथा पाश्चात्य दर्शन में अंतर :
पाश्चात्य दर्शन :
पश्चिमी विचारकों की विचारधारा के अनुसार दर्शन का जन्म आश्चर्य और संदेश से होता हैI अगर इसे और भी अच्छे से कहा जाए तो प्लेटो ने कहा था कि दर्शन का जन्म आश्चर्य से होता हैI इससे विपरीत ने कहा था कि दर्शन का जन्म संदेश होता हैIअब सच्चाई क्या हैI इस विषय पर प्रोफेसर पैट्रिक कहते हैंI प्राचीन काल में दर्शन का जन्म आश्चर्य से हुआ थाI किंतु वर्तमान समय में दर्शन का जन्म संशय से होता हैं।
इसका कारण यह है कि आधुनिक युग में संदेह मानव के लिए रोम-रोम में बस चुका हैI एक प्रसिद्ध प्रवक्ता ने अपने भाषण में कुछ शब्द कहे थेIजो कि इस तरह थेI ऐसा समय कहीं नहीं रहा जबकि इतने अधिक लोग इतने अधिक विषयों के बारे में अध्ययन करने के बाद इतने अधिक संदेह में रहे हो जितना कि वर्तमान युग में हैI आज का शिक्षित मानव जीवन प्रकृति, ब्रह्मांड, ईश्वर और धर्म के विषय में भी संदेह मानता है बल्कि साइंस या विज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित इसकी भी बुनियादी मान्यता पर संदेह बना रहता है।
भारतीय दर्शन : भारतीय विचारधारा के अनुसार दर्शन का जन्म मानव के सांसारिक दुखों से मुक्त करने के लिए और सत्य का साक्षात्कार कराने के लिए हुआ हैI जब व्यक्ति को सत्य का बोध हो जाता है तब वह और अविनाशी में अंतर समझ लेता हैI जब से यह दुनिया शुरू हुई है तभी से मानव सिर्फ प्रकृति, ब्राह्मण , सूर्य, तारे केवल इन्ही को लेकर ही नहीं बल्कि ईश्वर को लेकर भी समस्या में पड़ा हुआ हैI उसने ईश्वर को जानने की भी जिज्ञासा नहीं रखी हैI आज हम इतनी विकसित दुनिया में रह रहे हैं यह उसी जिज्ञासाओं का परिणाम है लेकिन जो हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि थे उन्हें इस सांसारिक सुख से संतुष्टि नहीं हुई वह एक असीम आनंद को प्राप्त करना चाहते थेI उन्होंने सत्य की खोज के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म बातो का गूढ़ से गूढ़ अध्ययन किया और सिर्फ बाहरी रूप से ही नहीं बल्कि आंतरिक रूप से भी और वह इसमें सफल भी हुए और फिर उन्हें परम सत्य का भी ज्ञान हुआI उसी ज्ञान को उन्होंने दर्शन का नाम दिया और यही
INDIAN PHILOSOPHY(भारतीय दर्शन) कहलाती हैI इसलिए आज भी देखने को मिलता है कि भारत के दार्शनिक विज्ञान को केवल हासिल ही नहीं करना चाहते बल्कि उसको उपयोग में भी लाना चाहते हैंI उनकी अनुभूति को भी प्राप्त करना चाहते हैं जबकि पश्चिम के दार्शनिक बुद्धिमान और प्रज्ञावान बनना चाहते हैंI पश्चिम के दार्शनिक में किताबी ज्ञान और चिंतन के आधार पर ही बुद्धिमान बनना चाहते हैं लेकिन भारतीय दार्शनिक अंतः स्वअध्ययन से ही बुद्धिमान होना चाहते हैंI और इसी व्यवस्था को आगे की ओर ले जाना चाहते हैं।
भारतीय दर्शन और पश्चिमी दर्शन में अंतर
क्रम |
भारतीय दर्शन |
पश्चिमी दर्शन |
1. |
भारतीय दर्शन को अध्यात्मिक दर्शन और तत्व दर्शन कहा जाता है। |
पश्चिमी दर्शन को सैद्धांतिक दर्शन और वैज्ञानिक दर्शन भी कहा जाता है। |
2. |
चेतना की मीमांसा का होना अनिवार्य हैI इसलिए भारतीय दर्शन आंतरिक है। |
इसमें चेतना का होना जरूरी नहीं है इसलिए यह बाहरी है। |
3. |
यहजीवन के अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाना चाहता है। |
यह सीखने और सिखाने की महत्वता पर बल देता है। |
सोशियोलॉजी (SOCIOLOGY)
सोशियोलॉजी की परिभाषा एवं उसका अर्थ :
ऑगस्ट काम्टे ने ग्रीक शब्द
SOCIUS तथा लैटिन भाषा के
LOGOS शब्द को मिलाकर SOCIOLOGY शब्द को बनाया थाI जिसका अर्थ है समाज के विज्ञान का अध्ययन
Science of Study of Society
समाजशास्त्र के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए नीचे कुछ परिभाषाएं दी जा रही हैं :
ऑगस्ट काम्टे के अनुसार
“ समाजशास्त्र सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिक प्रगति का विज्ञान हैI”
“Sociology is the science of social order and social progress.”
इमाइल दुर्खीम के अनुसार
“ समाजशास्त्र सामूहिक प्रतिनिधित्व का विज्ञान हैI”
“Sociology is the science of collective representation”
मैकाइवर व पेज के अनुसार
“ समाजशास्त्र सामाजिक संबंधों के विषय में अध्ययन करता है एवं मानवीय संबंधों का एक संजाल है जिसे समाज कहा जाता है।”
समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ है समाज का विज्ञानI इसकी रचना का श्रेय फ्रांस के मध्यदार्शनिक ऑगस्ट काम्टे को जाता हैI समाजशास्त्र से उनका अभिप्राय व्यक्ति व समाज के मध्य संबंधों के अध्ययन में वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करना हैII उन्होंने सन 1837 में एक नवीन शास्त्र की रचना की जिसे समाजशास्त्र के नाम से जाना जाता हैI समाजशास्त्र शब्द सोशियोलॉजी शब्द का हिंदी रूपांतरण हैI समाजशास्त्र को सामाजिक अंतरसंबंधों का विज्ञान माना जाता है।
समाज शास्त्र की प्रकृति : समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा का अध्ययन करने के पश्चात हम उसकी प्रकृति पर प्रकाश डालेंगे :
- समाजशास्त्र एक विशुद्ध विज्ञान है: समाजशास्त्र सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करके यथार्थ ज्ञान संग्रह करता हैI यह क्या है? का ही उत्तर खोजता हैI इसलिए समाजशास्त्र एक विशुद्ध विज्ञान है ना कि व्यावहारिक विज्ञान।
- समाजशास्त्र एक अमूर्त विज्ञान है: समाजशास्त्र एक अमूर्त विज्ञान है क्योंकि समाजशास्त्र सामाजिक संबंधों का अध्ययन है और सामाजिक संबंध अमूर्त होते हैंI अतः समाजशास्त्र एक मूर्त विज्ञान ना होकर एक अमूर्त विज्ञान है।
- समाजशास्त्र एक वास्तविक विज्ञान है ना कि आदर्शनात्मक विज्ञान: समाजशास्त्र वास्तविक घटनाओं का अध्ययन करता हैI और इनका उसी रूप में अध्ययन करता है जैसा कि यह घटित हो गए होI वास्तविक रूप में समाजशास्त्र यह नहीं बताता कि क्या करना चाहिए? इसलिए यह एक वास्तविक विज्ञान है आदर्शनात्मक विज्ञान नही।
- समाजशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है ना कि प्राकृतिक:
समाजशास्त्र सामाजिक तथ्यों तथा सामाजिक न्याय का अध्ययन करता हैI प्राकृतिक घटनाओं का नहींI प्रत्येक समाजशास्त्री केवल वैज्ञानिक नहीं होता वरन वह समाज वैज्ञानिक होता है।
शैक्षिक समाजशास्त्र (Educational Sociology) :
शैक्षिक समाजशास्त्र सामाजिक विकास और उसकी उन्नति के लिए उन सभी सामाजिक प्रतिक्रियाओं एवं सामाजिक अंत: क्रियाओं का अध्ययन करता है जिनको जाने बिना शिक्षा के स्वरूप तथा शिक्षा की समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकताI संक्षेप में शैक्षिक समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो शिक्षासंबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली प्रक्रियाओं का जन-समूह संस्थाओं तथा समितियों का अध्ययन करता है।
जॉर्ज पेनी (George Payne) को शैक्षिक समाजशास्त्र का पिता Father of Educational Sociology माना जाता है।
रोसेक के अनुसार
“ शैक्षिक समाजशास्त्र मुख्य रूप से शिक्षा की समस्याओं से संबंधित समाजशास्त्र हैI”
हेम्पसन के अनुसार
“ शिक्षा समाजशास्त्र शिक्षा तथा समाज के मध्य संबंधों का वर्णन करता हैI”
शिक्षा का समाजशास्त्र (Sociology of Education) :
शिक्षा का समाजशास्त्र विद्यालय में सामाजिक घटना का अध्ययन करता हैI जिससे संस्था के सामाजिक पर्यावरण तथा सामाजिक जीवन में सुधार किया जा सकेI इसके अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए नीचे कुछ परिभाषाएं दी जा रही हैं :
हेन्सन के अनुसार
“ शिक्षा का समाजशास्त्र शिक्षा तथा समाज के बीच के संबंध का वर्णन करता हैI”
ब्रुक ओवर के अनुसार
“ शिक्षा का समाजशास्त्र शिक्षा पद्धति में निहित सामाजिक प्रक्रिया तथा सामाजिक प्रतिमानो के विश्लेषण का वैज्ञानिक अध्ययन हैI”
शैक्षिक समाजशास्त्र तथा शिक्षा का समाजशास्त्र में अंतर (Difference Between Educational Sociology and Sociology of Education):
क्रम |
शैक्षिक समाजशास्त्र |
शिक्षा का समाजशास्त्र |
1. |
यह शिक्षाशास्त्री की क्रिया हैI यह विश्लेषणात्मक नहीं वरन संश्लेषणात्मक हैI |
शिक्षा का समाजशास्त्र प्रयोगात्मक तथा विश्लेषणात्मक है। |
2. |
यह विद्यालय की समस्याओं के समाधान हेतु समाज की ओर जाता है। |
यह समाज से विद्यालय की ओर जाता है। |
3. |
यह समाज का व्यवहारिक पक्ष है। |
यह शिक्षा का व्यावहारिक पक्ष नहींI |
4. |
मूलत: शिक्षाशास्त्र का अंग है। |
शिक्षा का समाजशास्त्र समाजशास्त्र की एक शाखा हैI |
5. |
शैक्षिक समाजशास्त्री शिक्षा में अनुसंधान करता हैI |
शिक्षा समाजशास्त्री समाजशास्त्र में अनुसंधान करता हैI |
6. |
वह निरीक्षण साक्षात्कार आदि का प्रयोग करने मेंअनुसंधान करता है। |
यह प्रयोगात्मक अध्ययन पर बल देता हैI यह शैक्षिक समाजशास्त्र का उन्नत स्वरूप है। |
समाजीकरण (SOCIAALIZATION) मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैI मनुष्य सभी सामाजिक गुण तथा विशेषताएं जन्म के बाद समाज में रहकर अर्जित करता हैI बच्चा जब जन्म लेता है तब वह केवल रक्त, मांस, हड्डी आदि का एक जीवित पुतला होता हैI उस समय उसमें ना तो कोई सामाजिक गुण होता है ना ही कोई समाजी विरोधी गुणI उस समय वह प्राणी शास्त्री गुणों वाला एक जीवधारी होता हैI समाज एवं संस्कृति के बीच में पलते हुए वह धीरे-धीरे एक सामाजिक प्राणी बदल जाता हैI दूसरे शब्दों मे वह अपनी सामाजिक परंपराओ के अनुसार व्यवहार करना सीख जाता है और इसके द्वारा स्वयं को पशु जगत से अलग कर लेता हैI इस प्रकार जिस प्रक्रिया द्वारा कोई भी प्राणीशास्त्री प्राणी सामाजिक प्राणी में बदल जाता है उसे समाजीकरण (Socialization) कहते हैंI प्राणी से सामाजिक प्राणी बनने की प्रक्रिया का ही समाजशास्त्री भाषा में समाजीकरण कहते हैंI समाजीकरण से ही व्यक्ति मनुष्य बनता हैI अपनी सामाजिक सांस्कृतिक विरासत का सक्रीय भागीदार बनता है और व्यक्तित्व का विकास करता हैI
ड्रेवर के अनुसार :
“समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने सामाजिक वातावरण से समायोजन करता है और सामाजिक मान्यता प्राप्त करके वह समाज का माननीय सहयोगी तथा कुशल सदस्य बनता हैI”
वाटसन के अनुसार :
“समाजीकरण एक सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया हैI”
हैरी एम. जॉनसन के अनुसार :
“समाजीकरण सीखने की वह प्रक्रिया है जो सीखने वाले को सामाजिक भूमिकाओं का निर्वाह करने योग्य बनाती हैI”
समाजीकरण की प्रक्रिया या स्तर या सोपान (Process or Stage of the Socialization): मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैI वह समाज में ही रहकर अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता हैI समाज में वह जब जन्म लेता है तो यहीं पर उसका विकास होता है और यहीं पर वह सामाजिक संबंधों के तानों-बानो में उलझा रहता हैI समाज के यही ताने-बाने मनुष्य को सामाजिक बनाते हैंI समाज में जिस प्रक्रिया के अधीन बालक का समाजीकरण होता हैI उसे समाजीकरण की प्रक्रिया कहते हैंI समाजीकरण की प्रक्रिया जन्म से प्रारंभ हो जाती हैI बच्चा सर्वप्रथम अनुकरण के माध्यम से सीखता हैI
समाजीकरण प्रक्रिया के तीन पद हैं जो कि निम्नवत है
- 1. प्रसारण (Expansion) : किसी भी प्रक्रिया का पहला पद प्रसारण होता हैI मनुष्य जब समाजीकरण की प्रक्रिया में प्रवेश करता है तब उसे पहला पद उन प्रतिमानो के साथ में लाना पड़ता है जो उसे ग्रहण करने पड़ते हैंI यह प्रक्रिया प्रसारण कहलाती है।
- 2. संस्कृतिकरण (Acculturation): समाजीकरण का दूसरा पद संस्कृतिकरण हैI इस पद में व्यक्ति जिन समाज में रहने लगता हैI उसमें उस समाज के रीति-रिवाज, आचार-विचार, रहन-सहन आदि को स्वीकार करने के साथ-साथ वह अपने आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान को भी दूसरे समाज में प्रचारित करता हैI संस्कृतिकरण की इस प्रक्रिया की परत दोहरी होती है।
- 3. आत्मसातीकरण (Assimilation): समाजीकरण की प्रक्रिया का तीसरा पद हैI आत्मसातीकरण इसके अंतर्गत व्यक्ति समाज विशेष के रीति-रिवाजों में अपने को पूरी तरह आत्मसात कर देता हैI जिसमें यह प्रक्रिया संपन्न हो जाती हैI व्यक्ति का पूरी तरह से समाजीकरण हो जाता है।
समाजीकरण की तकनीके (Techniques Of Socialization)
बालक के समाजीकरण की कुछ तकनीकी निम्नलिखित हैं :
- 1. प्रतियोगिता (Competition): प्रतियोगिता का अर्थ है दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करनाI प्रतियोगिता समाजीकरण को बढ़ावा देती हैI प्रत्येक व्यक्ति अपना मान-सम्मान और आदर चाहता हैI इस कारण वह सामाजिक व्यवहार को सीखने में लगा रहता हैI इसको प्राप्त करने के लिए वह प्रतियोगिता में भी भाग लेता है।
- 2. सहयोग (Cooperation) : सहयोग का अर्थ होता है मिलकर काम करनाI बालक छोटी आयु में ही सहयोग करना सीख लेता है।
- 3. संघर्ष (Conflict): संघर्ष का अर्थ होता है दो व्यक्तियों अथवा दो समूहों के मध्य किसी वस्तु को प्राप्त करने की कोशिश करनाI बालक या व्यक्ति को समय में आगे बढ़ने के लिए या समाज में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष करना पड़ता हैI बिना संघर्ष के वह सफलता नहीं प्राप्त कर सकता।
- 4. तादाम्मीकरण (Indification): एक व्यक्ति द्वारा स्वयं को दूसरे व्यक्ति के अनुसार व्यवहार ग्रहण करना तथा अपने आप को ढालने की प्रक्रिया को तादाम्मीकरण कहते हैंI यह बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया में विशेष महत्व रखता है।
समाजीकरण में प्रमुख अभिकरण/ कारक (Main Agencies/Factors Of Socialization) :
बालक का समाजीकरण करने वाले तत्व :
१. परिवार
२. पड़ोस
३. समुदाय
४. खेलकूद
५. नातेदारीसमूह
६. आर्थिकस्तर
७. विद्यालय
८. जातिसमूह
९. आयुसमूह
१०. अन्यप्राथमिकसमूह
संस्कृति (CULTURE)
प्रत्येक बालक का जन्म दोहरी विरासत के साथ होता है: जैवीकीय और सांस्कृतिकI अपनी जैविक विरासत में उसे अपनी शारीरिक विशेषताएं मानसिक क्षमताएं और आधारभूत आवश्यकताएं प्राप्त होती हैI उसे अपनी सांस्कृतिक विरासत समाज से प्राप्त होती हैं जिसमें उसका जन्म और पालन-पोषण होता हैI बालक की शिक्षा में उसकी सांस्कृतिक विरासत का उतना ही महत्व होता हैI जितना कि उसकी जैवीकीय विरासत काI इस पर प्रकाश डालते हुए वेरको व अन्य ने लिखा है : “ यद्यपि समाजशास्त्रियों की खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि संस्कृति जन्मजात ना होकर सीखी जाती है फिर भी इसके सीखने को इतना अधिक महत्व दिया जाता है कि इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती”
संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition Of Culture) :
Culture शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के
cultra शब्द से हुई हैI जिसका अर्थ है कर्षण खेती, संस्कृति, शिष्टता तथा तहजीबI संस्कृति शब्द संस्कार शब्द का वंशज है जिसका अभिप्राय शुद्ध करने या सुधारने से हैI संस्कार मानव निर्मित व्यवहार की विधियां हैI जिसमें मनुष्य का समाज के प्रति अधिक जागरूक होने का प्रमाण मिलता हैI
परिभाषा (Definition):
टायलर (Tylor) के अनुसार
“ संस्कृति वह जटिल पूर्णता है जिसमें ज्ञान, विश्वास कला, नैतिकता, नियम, रिवाज और समाज के सदस्य के रूप में मनुष्य द्वारा अर्जित की जाने वाली अन्य योग्यताएं और आदतें सम्मिलित हैI”
सदरलैण्ड व वुडवर्ड ने संस्कृति और सामाजिक विरासत को पर्यायवाची माना है और लिखा है कि “ संस्कृति में कोई भी बात आ सकती है जिसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जा सकता हैI किसी भी राष्ट्र की संस्कृति उसकी सामाजिक विरासत हैI”
संस्कृति की विशेषताएं (Features or Characterisitics of Culture):
संस्कृति की विशेषताएं बहुत व्यापक हैं उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :
१. ग्रहण करना : संस्कृति ग्रहण की जाती हैI मानव अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित संस्कृति के साथ दूसरी संस्कृति को ग्रहण कर सकता हैI अंततः हम कह सकते हैं संस्कृति सर्वग्राही है।
२. सामाजिक विरासत : संस्कृति सामाजिक विरासत का वह लक्षण है जो हमने अपने पूर्वजों से सीखा हैI मनुष्य को सामाजिक विरासत के आदर्शों का अनुसरण करना होता है।
३. संस्कृति सीखे हुवे व्यवहार का प्रतिमान है : संस्कृति को समाज में आकर ही सीखा जाता है क्योंकि संस्कृति कोई जन्म-जात गुण नहीं है।
४. संस्कृति में स्थानांतरित होने का गुण होता है : संस्कृति को सामाजिक विरासत भी कहा जाता है क्योंकि संस्कृति में सीखे जाने का ही नहीं बल्कि हस्तांतरित होने का गुण विद्यमान होता हैI संस्कृति को एक पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करती चलती है।
५. संस्कृति परिवर्तनशील होती है : हस्तांतरण के कारण परिवर्तन स्वाभाविक रूप से होता है क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी इसमें अपनी सुविधा एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन करती हैI इसलिए इसमें निरंतर चलने वाली प्रक्रिया में परिवर्तन आता हैI अतः हम कह सकते हैं कि संस्कृति निरंतर चलने वाली परिवर्तनशील प्रक्रिया है।
६. संस्कृति सार्वभौमिक, सामाजिक और विशिष्ट होती है: संस्कृति का निर्माण किसी एक व्यक्ति के द्वारा नहीं किया जा सकताI इसका निर्माण तो समाज के अंतर्गत होने वाली अंतःक्रिया से ही संपन्न अथवा संभव हैI अर्थात संस्कृति किसी एक व्यक्ति पर निर्भर ना होकर पूरे समाज पर निर्भर होती है।
सभ्यता और संस्कृति में अंतर
क्रम |
सभ्यता |
संस्कृति |
1. |
यह एक वस्तु है जो हमारे पास हैI |
यह वह गुण है जो हम सभी में व्याप्त है। |
2. |
सभ्यता में उपयोगिता पर बल दिया जाता हैI |
संस्कृति में मूल्यों पर बल दिया जाता है। |
3. |
सभ्यता के अंदर समस्त भौतिक पदार्थ आते हैंI |
संस्कृति के अंदर कल्प एवं कौशल आते हैंI |
4. |
इसकी अवधि संकुचित होती हैI |
यह सतत् रहने वाली हैI |
5. |
इसकी सामग्री नष्ट हो जाती है। |
इसकी सामग्री निरंतर गतिशील है। |
6. |
इसका संबंध शारीरिक उपयोगिता से हैI |
इसका संबंध आत्मा से है। |
7. |
हमारी संस्कृति वही है जिसका उपयोग हम कर सकते हैं अर्थात साधन। |
हम जो हैं वही हमारी संस्कृति है। |
संस्कृति एवं शिक्षा में संबंध (Relation between culture & civilization) :
किसी भी देश के शिक्षा उस देश के संस्कृति पर आधारित होती हैI शिक्षा की सामग्री का निर्माण संस्कृति की सामग्री से ही होता हैI बिना संस्कृति के शिक्षा का कोई भी महत्व नहीं होता हैI समाज में संस्कृति के भी कारण शिक्षा में समाज की विशेषता होती हैI प्रत्येक समाज अपने शिक्षा की व्यवस्था अपनी संस्कृति के अनुरूप करता हैI संस्कृति के सहायता से ही शिक्षा अपने उद्देश्य निर्धारित करती है एवं उनकी पूर्ति के लिए स्वयं संस्कृति की सहायता लेती हैI
संस्कृति एवं शिक्षा के संबंध को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है :
१. संस्कृति की निरंतरता में शिक्षा की भूमिकाI
२. संस्कृति के हस्तांतरण में शिक्षा की भूमिकाI
३. संस्कृति के परिवर्तन में शिक्षा की भूमिकाI
४. व्यक्ति के संस्कृति विकास में शिक्षा की भूमिकाI
५. व्यक्तित्व के विकास में सहयोगI
६. शिक्षा में संस्कृति का समावेश
सामाजिकपरिवर्तन(SOCIAL CHANGE) :
सामाजिक परिवर्तन दो शब्दों से मिलकर बना हैI समाज और परिवर्तन समाज का अर्थ केवल व्यक्तियों का समूह नहीं है समूह में रहने वाले व्यक्तियों के आपस में जो संबंध है उन संबंधों के संगठित रूप को ही समाज कहते हैंI समाज सामाजिक संबंधों का जाल हैI परिवर्तन का अर्थ है बदलाव अर्थात पहले की स्थिति में बदलाव अर्थात पहले की स्थिति और आज की स्थिति में आने वाला अंतर या बदलाव ही परिवर्तन हैI इस प्रकार समाज की पहले की स्थिति और बाद की स्थिति में अंतर आ जाना ही सामाजिक परिवर्तन कहलाता हैI सामाजिक संगठन, सामाजिक ढांचे, सामाजिक संबंधों, समाज के रहन-सहन, व ढंग, रीति-रिवाजों, मूल्यों एवं विश्वासों इत्यादि में जो अंतर आ जाता है वह सामाजिक परिवर्तन कहलाता है।
किलपैट्रिक के अनुसार
“ किलपैट्रिक का विचार है कि सामाजिक परिवर्तन पूर्ण या आंशिक अच्छी या खराब किसी भी दिशा में हो सकता हैI उनके मतानुसार परिवर्तन विचाराधीन बात का पूर्ण या आंशिक परिवर्तन हैI इसका अभिप्राय यह नहीं है कि परिवर्तन अच्छी बात के लिए है या बुरी बात के लिए”
मैकाइवर व पेज के अनुसार :
“ सामाजिक परिवर्तन एक ऐसी प्रक्रिया है जिस पर विविध प्रकार के परिवर्तनों का प्रभाव पड़ता है जैसे – मानव निर्मित रहन-सहन की दशा में परिवर्तन, मनुष्य के दृष्टिकोण में परिवर्तन तथा ऐसे परिवर्तन जो मनुष्य के नियंत्रण के परे हैं अर्थात जो वस्तुओं की जैविक तथा भौतिक प्रकृति द्वारा किए जाते हैंI”
वीo कप्पू स्वामी के अनुसार :
“ सामाजिक परिवर्तन सामाजिक संरचना तथा सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन हैI”
सामाजिक परिवर्तन के कारण (Cause Of Social Change):
मैक्स वेबर ( Max Weber) के शब्दों में
“ सामाजिक परिवर्तन का कारण संस्कृति हैI”
उन्होंने विभिन्न धर्मों तथा आर्थिक व्यवस्थाओं की तुलना करके सिद्ध करने का प्रयास किया है कि संस्कृति में परिवर्तन होने के कारण समाज में परिवर्तन होते हैंI सामाजिक परिवर्तन मात्र सांस्कृतिक परिवर्तन के कारण नहीं होते वरन भौतिक राजनीतिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी कारणों से भी होते हैं।
कुछ और भी कारण है जो निम्नवत है :
- प्राकृतिक कारण या भौतिक कारण(Natural factors and physical factors)
- जैवीकीय कारण (Biological Factors)
- जन संख्यात्मक कारण (Demographic Factors)
- प्रौद्योगिकी कारण (Technological Factors)
- सांस्कृतिक कारण (Cultural Factors)
- आर्थिक कारण (Economical Factors)
- मनोवैज्ञानिक कारण (Psychological Factors)
शिक्षा व सामाजिक परिवर्तन में संबंध(Realtionship Between Education and Social Change):
शिक्षा तथा समाज का घनिष्ठ संबंध हैI शिक्षा समाज का एक महत्वपूर्ण साधन हैI सामाजिक परिवर्तनों के अनेक कारणों में से ही शिक्षा एक महत्वपूर्ण कारक हैI शिक्षा अनुभवों की पुनर्रचना करके लोगों के अभिवृत्तिओं में परिवर्तन लाती हैI अभिवृत्तिओं में परिवर्तन से व्यवहार में परिवर्तन आता हैI व्यवहार परिवर्तन से सामाजिक संबंधों में परिवर्तन आता हैI सामाजिक संबंधों का परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन हैI इस तरह से शिक्षा सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख अभिकर्ता के रूप में सामने आती हैI शिक्षा तथा सामाजिक परिवर्तन के संबंधों को निम्नांकित रूप से देखा जा सकता है:
(१). शिक्षा सामाजिक परिवर्तन की स्थिति तथा साधन (Education as a Condition and Instruction of Social Change) :
यह कहा जाता है कि शिक्षा के अभाव में सामाजिक परिवर्तन नहीं हो सकताI इसका अभिप्राय है कि सामाजिक परिवर्तन लाने से पूर्व शिक्षा की व्यवस्था की जाएI समाज में बहुत से परिवर्तन या सुधार लाने के लिए कार्य किया जाता है परंतु शिक्षा के अभाव के कारण सुधार या परिवर्तन व्यवहारिकता पूर्ण सफल नहीं हो पातेI अत: शिक्षा द्वारा इस खाई को पाटकर सामाजिक परिवर्तनों को गति प्रदान की जाती हैI शिक्षा के द्वारा व्यक्तियों के विचार अभिवृत्तिओं तथा मूल्यों में परिवर्तन लाया जा सकता हैI इस दृष्टि से शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का महत्वपूर्ण अभिकरण बन जाती हैI शिक्षा आयोग के शब्दों में शिक्षा समाजिक क्रांति की वाहक है।
(२). शिक्षा सामाजिक परिवर्तनों का परिणाम है (Education as a result Of Social Changes) : यदि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का परिणाम है तो इसका अभिप्राय यह है कि सामाजिक परिवर्तन में शिक्षा के लिए मांग प्रस्तुत या उत्पन्न कर दी हैI अतः इस दृष्टिसे शिक्षा सामाजिक परिवर्तनों के अनुरूप व्यवस्थित की जाएगी।
(३). विज्ञान तथा तकनीकी विकास का शिक्षा पर प्रभाव (The impact of Science and Technology on Education): विज्ञान तथा तकनीकी का शिक्षा पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है और शिक्षा के कारण सामाजिक परिवर्तन में भी प्रभाव देखा जा सकता है।
सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility)
सामाजिक गतिशीलता का संबंध मनुष्य की परिस्थिति में होने वाले परिवर्तन से है।
‘स्थिति’ सामाजिक प्रतिष्ठा का मापदंड हैI प्रत्येक व्यक्ति एवं प्रत्येक समूह अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए अपनी सामाजिक स्थिति को ऊंचा करने का प्रयत्न करता हैI इस स्थिति को ऊंचा करना व्यक्ति की गतिशीलता हैI किंतु व्यक्ति की इच्छा सदैवपूर्ण नहीं होतीI उसकी स्थिति उठाने गिराने में अनेक वाह्य कारकों का भी योगदान रहता हैI इन कारणों के प्रभाव से व्यक्ति की स्थिति उठने के बजाय गिर भी सकती हैI सामाजिक जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैंI इसके अतिरिक्त समाज कुछ ऐसे समूहों में विभाजित रहता है जो एक-दूसरे के समान सामाजिक स्थिति रखते हैं या समान समझे जाते हैंI व्यवसाय बदलने से यह जीवन की एक क्षेत्र से दूसरे में क्रियाशील हो जाने से भी मनुष्य के सामाजिक स्थान बदल जाते हैंI इस प्रकार अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति से दूसरी स्थिति में पहुंच जाना ही स्थिति गतिशीलता है चाहे परिवर्तन की स्थिति ऊंची हो या नीची अथवा सामानI प्रत्येक समाज में अपनी भूमिकाओं और सामाजिक मूल्यांकन के आधार पर समाज के सदस्य ऊंची-नीची स्थितियों में विभाजित हो जाते हैं।
सामाजिक गतिशीलता का अर्थ(Meaning Of Social Mobility):
सामाजिक गतिशीलता का अर्थ है व्यक्ति की किसी सामाजिक ढांचे में गतिI इस गति से सामाजिक गतिशीलता का अर्थ है किसी सामाजिक ढांचे में किसी व्यक्ति के सामाजिक पद या सामाजिक स्थान में होने वाला परिवर्तनI अत: व्यक्ति की सामाजिक स्थिति या पद का ऊंचा अथवा निम्न हो जाना ही सामाजिक गतिशीलता है।
सामाजिक गतिशीलता की परिभाषा (Definition of Social Mobility):
मिलर व बूक के अनुसार :
“ सामाजिक गतिशीलता व्यक्तियों या समूह का एक सामाजिक संस्तरण से दूसरे सामाजिक संस्तरण में संचालन है।”
सोरोकिम के अनुसार :
“ सामाजिक गतिशीलता का अर्थ सामाजिक समूहों तथा स्तरो में किसी व्यक्ति का एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक स्थिति में पहुंच जाना है।”
सामाजिक गतिशीलता के प्रकार (Types Of Social Mobility) :
हेरोल्ड एल० हॉडकिंसन (Harold L. Hodgkinson) के अनुसार सामाजिक गतिशीलता के निम्नलिखित दो भेद होते हैं :
१. समतल सामाजिक गतिशीलता(Horizontal Social Mobility)
२. लंबवत सामाजिक गतिशीलता (Vertical Social Mobility)
१. समतल सामाजिक गतिशीलता(Horizontal Social Mobility):
हेरोल्ड एल० हॉडकिंसन के अनुसार
“ सामाजिक गतिशीलता में भौगोलिक गति होती हैI इस प्रकार की सामाजिक गतिशीलता में व्यक्ति के सामाजिक परिस्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता हैI”
उदाहरण : किसी छोटे शहर के बैंक का मैनेजर जब बड़े शहर के बैंक का मैनेजर बन जाता हैI तब उसके व्यवसाय में परिवर्तन ना होकर केवल भौगोलिक स्थिति में परिवर्तन होता हैI अर्थात उसी व्यवसाय में कार्यरत होते हुए मात्र स्थान में परिवर्तन के कारण उसकी स्थिति में उतार-चढ़ाव आ जाता है।
सोरोकिम ने समतल सामाजिक गतिशीलता के कुछ प्रकार बताए हैं जो निम्नलिखित हैं :
१. धार्मिक गतिशीलता
२. व्यवसायिक गतिशीलता
३. क्षेत्रीय गतिशीलता
४. दलगट गतिशीलता
५. परिवार गतिशीलता
६. अंतरराष्ट्रीय गतिशीलता
२. लंबवत सामाजिक गतिशीलता (Vertical Social Mobility): उदग्र गतिशीलता का अभिप्राय स्थितियों के उतार-चढ़ाव या श्रेणी क्रम से है। जब एक व्यक्ति अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति से ऊंची या नीची स्थिति में चला जाता है तो इसे उदग्र गतिशीलता कहा जाता है।
उदग्र गतिशीलता की परिभाषा देते हुए
सोरोकिम कहते हैं
“उदग्र गतिशीलता से मेरा अभिप्राय किसी व्यक्ति अथवा सामाजिक वस्तु के एक सामाजिक स्तर से दूसरे में परिवर्तन होने में उत्पन्न होने वाले संबंधों से हैI”
उदग्र गतिशीलता के निम्नलिखित दो प्रकार होते हैं :
१. आरोही गतिशीलता (Ascending Mobility):
आरोही गतिशीलता वह है जब कोई व्यक्ति नीचे स्थिति वाले समूह को छोड़कर ऊंची स्थिति वाले समूह में प्रवेश करता हैI आरोही गतिशीलता सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि करती है।
२. अवरोही गतिशीलता(Descending Mobility):
अवरोही गतिशीलता आरोही गतिशीलता के विपरीत है।
जब व्यक्ति का परिवर्तन उच्च स्थिति से निम्न स्थिति की ओर होता है तो यह अवरोही गतिशीलता कहलाती है।
उदाहरण: धनी से निर्धन हो जाना।