Friday, 26 July 2019

Philosophical perspective of Education

                                                                      दर्शन

 दर्शन  मानव  द्वारा  किया  गया सभी काल  में  सभी  देश  में  चिंतन  की स्पष्ट क्रिया  है या ज्ञान की वह शाखा है जो तार्किक  व विवेचनात्मक  हैI  पूरे संसार में मनुष्य  ऐक  ऐसा प्राणी है जो दर्शन को समझ सकता है तथा उसकी विवेचना कर सकता है यह उच्च मानसिक शक्तियों का कार्य है जो शक्ति मनुष्य के पास है मानव के विकास के इस उच्च सोपान का एक साधन शिक्षा है शिक्षा द्वारा ही मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास ज्ञान तथा कला और कौशलमेंवृद्धि तथा उसके व्यवहार में परिवर्तन किया जा सकता है इस तरह से दर्शन और शिक्षा आपस में एक दूसरे से संबंधित है और एक  दूसरे पर आश्रित है दर्शन के विभिन्न अर्थ बताए गए हैं संस्कृत में कहा गया है :
दृश्यते अनेन इति दर्शनम्
भारत दर्शन के गुरुस्थली माना जाता है दर्शन का प्रारंभ भारत से होकर आज पूरे विश्व में व्याप्त है दर्शन को विभिन्न भागों में विभाजित किया जा सकता है धर्मशास्त्र ,नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र I दर्शन शब्द की उत्पत्ति दृश धातु से मानी जाती है जिसका अर्थ है देखना या अवलोकन करना उपनिषद में दर्शन की परिभाषा दी गई है  “दृश्यते अनेन इति दर्शनम् इसका अर्थ है जिस से देखा जाए अर्थात जिसके माध्यम से किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप को देखा जाए संसार का सच्चा स्वरूप क्या है मैं कौन हूं ईश्वर कौन है आदि आदि इन सभी प्रश्नों की खोज करना और उनका समुचित उत्तर देना ही दर्शन का प्रमुख लक्ष्य हैI



वेस्टर्न कॉन्सेप्ट ऑफ फिलॉसफी : 


पाश्चात्य देशों में दर्शन का सर्वप्रथम विकास मिश्र में हुआ था दर्शन शब्द को इंग्लिश में Philosophy कहते हैंI Philosophy शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के दो शब्दों से हुई हैI Philo तथा Sophia जिसमें philos का अर्थ है प्रेम या अनुराग तथा sophia का अर्थ है ज्ञान या विद्या अर्थात philosophy का अर्थ हुआ ज्ञान से प्रेम या विद्या से अनुराग जब हम ग्रीक फिलॉस्फर सुकरात था उनके शिष्य प्लेटो को पढ़ते हैं तो हमें पता चलता है कि सुकरात दार्शनिक थे जो सत्य के दर्शन के प्रेमी थे वह सदा सत्य की खोज में लगे रहते थे प्लेटो का कहना है कि एक दार्शनिक की परिभाषा यह है कि प्रत्येक  प्रकार के ज्ञान के लिए रुचि रखें और सीखने के लिए सदैव उत्सव बने रहे वह भी जब तक संतुष्ट ना हो वही दार्शनिक कहलाता है|


भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में आधारभूत अंतर

भारतीय दर्शन :- भारतीय दर्शन अनुभूति का विषय है भारतीय दर्शन में अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने को साध्य मानते हैंI
भारतीय दर्शन ज्ञान के स्वामित्व पर बल देता है|

पाश्चात्य दर्शन :- पाश्चात्य दर्शन ज्ञान के प्रति अनुराग है| पाश्चात्य दर्शन में साध्य पर ध्यान ना देकर साधन तक ही सीमित रहना अर्थात मंजिल पर ध्यान न देकर मार्ग के अनन्य को ही लक्ष्य मानते हैं|

पाश्चात्य दर्शन ज्ञान के खोज पर बल देता है|

Definition of Philosophy:-


डॉक्टर राधाकृष्णन के अनुसार दर्शन शब्द वास्तविकता के स्वरूप की तार्किक विवेचना हैI”

सेलर्स के अनुसार दर्शन एक व्यवस्थित विचार द्वारा विश्व और मनुष्य की प्रकृति के विषय में ज्ञान प्राप्त करने का निरंतर प्रयास हैI”



दर्शन का अध्ययन क्षेत्र या विषयवस्तु ( Scope of Philosophy) :-

अध्ययन क्षेत्र का अर्थ उस विस्तृत और संभावित सीमा से होता है जहां तक किसी विषय का अध्ययन किया जा सकता है दर्शन का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड एवं उसकी समस्त वस्तु एंव क्रियाएं आती हैI इस विषय में अब तक जो भी प्राप्त किया गया हैI वह उसकी विषय वस्तु कहलाती है दर्शन एक विषय वस्तु हैI दर्शन के अध्ययन क्षेत्र को मुख्यतः तीन भागों में विभक्त करतेहैं:
1.तत्वमीमांसा
2.ज्ञानमीमांसा
3.मूल्यमीमांसा


तत्व मीमांसा :-      
                            तत्व मीमांसा का क्षेत्र बड़ा व्यापक हैI इसमें संपूर्ण सृष्टि उसकी सत्ता आत्मा और परमात्मा तथा ईश्वर की खोज की जाती हैI इस क्षेत्र में अब तक जो खोजे हो चुकी हैI उसमें तार्किक विवेचना ही इसकी विषय वस्तु हैI जैसे-आत्मा संबंधी तत्व ज्ञान, ईश्वर संबंधी तत्व ज्ञान,सृष्टि की उत्पत्ति का सार, सृष्टिशास्त्र(cosmogomy), सत्ताशास्त्र(Ontology)I


ज्ञान मीमांसा(Epistemology):-

                                                    ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में मानव बुद्धि, ज्ञान प्राप्त करने के साधन, व विधियां, ज्ञान की सीमा, सत्य असत्य व भ्रम व प्रमाणिकता की खोज की जाती है|

मूल्य मीमांसा:-

                            मूल्य मीमांसा पाश्चात्य दर्शन का विषय है जिसके अंतर्गत तीन विषय आते हैं –
(i) आचार मीमांसा(Ethics)
(ii) तर्कशास्त्र (Logic)
(iii) सौंदर्य शास्त्र (Aesthetics)


 आचार मीमांसा(Ethics):-
                                             अचार मीमांसा के क्षेत्र में मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य एवं उन लक्ष्यों को प्राप्त करने में साधनों मूल्यों एवं आदर्शों की खोज की जाती है|



तर्कशास्त्र (Logic):- 
                                     तर्क शास्त्र में मनुष्य के लिए क्या करने योग्य है और क्या नहीं एवं ऐसे कर्मों की खोज व विवेचना की जाती है भारतीय दर्शन में मूल्य मीमांसा को अचार मीमांसा के रूप  में स्वीकार किया गया है|

सौंदर्य शास्त्र(Aesthetics):-
                                               सौंदर्य शास्त्र में मनुष्य के लिए व्यावहारिक सौंदर्य का अध्ययन किया जाता है जो मनुष्य के लिए उपयोगी है वही सुंदर है|

विज्ञान दर्शन:-

                        दर्शन की यह शाखा आधुनिक युग की देन है इसमें विभिन्न विज्ञानों के मूल कल्पनाओं एवं परिणामों की तार्किक विवेचना की जाती है इस दर्शन ने विभिन्न शाखाओं को जन्म दिया है जैसे शिक्षादर्शन,सामाजिक दर्शन,राजनैतिक दर्शन,अर्थशास्त्र दर्शन, शब्दार्थ शास्त्र|

दर्शन और शिक्षा :

शिक्षा मानव की विशेष उपलब्धि है और शिक्षा जीवन के साथ –साथ चलती है दर्शन चिंतन का विषय है और ज्ञान तक सीमित है दर्शन मनुष्य के संपूर्ण व्यक्तित्व और संपूर्ण सृष्टि में समाहित रहता है शिक्षा और दर्शन दोनों एक दूसरे से इस तरह संबंधित हैं जैसे सांसों का आना और जाना जहां एक तरफ दर्शन शिक्षा को प्रभावित करता है वही शिक्षा भी दर्शन से जुड़ी है प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री रॉस के अनुसार दर्शन और शिक्षा एक सिक्के के दो पहलुओं के समान है जो एक ही वस्तु के विभिन्न पक्षों का बोध कराती है|”
इसको समझने के लिए दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव और शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव अलग-अलग समझना होगा|

दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव:-

दर्शन व शिक्षा का संप्रत्यय:
दर्शन शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करता है जैसे उदाहरण स्वरूप आदर्शवादी दर्शन शिक्षा को आध्यात्मिक क्रिया मानता है तो प्रकृतिवादी दर्शन शिक्षा को एक प्राकृतिक क्रिया मानता है और समाजवादी दर्शन शिक्षा को एक सामाजिक क्रिया मानता है।

दर्शन पर शिक्षा के उद्देश्य:
दर्शन अपने तत्व मीमांसा के माध्यम से जीवन के उद्देश्यों को निश्चित करता है और शिक्षा उन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आयोजित किया जाता है जैसे आदर्शवादी दर्शन में यह प्राचीन वैदिक दर्शन में मनुष्य को परमात्मा का अंश माना जाता था तो शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के आत्मिक और आध्यात्मिक विकास करनाI प्रगतिवादी दर्शन में मनुष्य को संसार का उच्चतम प्राणी मानते हैं तो उनकी शिक्षा का उद्देश्य भौतिक शक्तियों के विकास पर बल देना है।

दर्शन और शिक्षा का पाठ्यक्रम:-
ज्ञान मीमांसा द्वारा ज्ञान के स्वरूप और उसे प्राप्त करने हेतु ज्ञान दिया जाता है अर्थात प्रत्येक समाज में जो दर्शन प्रचलित होता है उसी के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाया जाता है|
उदाहरण: आदर्शवादी दर्शन में जहां पाठ्यक्रम में साहित्य धर्म दर्शन की प्रयोक्ता दी जाती है वहीं प्रयोजनवादी दर्शन में व्यावहारिक और व्यवसायिक विषयों का प्रचलन होता है।

दर्शन और शिक्षण विधियाँ :-
जिस प्रकार का दर्शन होता है उसी प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उपयोगी विधियों का प्रयोग किया जाता है जैसे प्रतिवादी दर्शन में मनुष्य को केवल शारीरिक प्राणी मानते हैं तथा वह इंद्रियों के शिक्षण पर अधिक बल देते हैं वहीं समाजवादी दर्शन मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानता हैI अतः वह शिक्षण में सामाजिक क्रियाओं को अधिक प्रयुक्त करते हैं।

दर्शन और अनुशासन :-
दर्शन में तत्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा के अलावा तीसरा विषयवस्तु है मूल्य मीमांसा मूल्य मीमांसा के अंतर्गत मनुष्य के लिए क्या करणीय है और क्या अकरणीय है ऐसे कर्मों की विषद विवेचना की गई है।

दर्शन व शिक्षा प्रक्रिया में शिक्षक और शिक्षार्थी की स्थिति :
शिक्षा प्रक्रिया में शिक्षण का अर्थ शिक्षक तथा छात्र की स्थिति भी दर्शन से प्रभावित होती है जैसे वैदिक दर्शन में या आदर्शवाद में मनुष्य को आत्माधारी प्राणी मानते हैं तथा शिक्षक तथा शिक्षार्थी दोनों आत्माधारी है तो शिक्षार्थी को अपनी आत्मा के ज्ञान का स्वरूप प्राप्त करने के लिए गुरु के शरण में जाना पड़ता थाI इसीलिए प्राचीन वैदिक दर्शन में गुरु का स्थान सर्वोच्च है और छात्र की स्थिति गुरु के लिए पुत्र तुल्य होती है।
जबकि प्रकृतिवादी दर्शन में शिक्षक की स्थिति गौढ़ और पर्दे के पीछे होती हैI शिक्षार्थी प्रमुख होता है और शिक्षक गौढ़।
इस प्रकार दर्शन शिक्षा के हर क्षेत्र को प्रभावित करता हैI बिना दर्शन के शिक्षा का विधान संभव नहीं है।
जैन टाइन महोदय ने लिखा है दर्शन की सहायता के अभाव में शिक्षा सही मार्ग में नहीं चल सकती|

शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव :-

शिक्षा मनुष्य के विकास की आधार शिला है उचित शिक्षा के अभाव में मनुष्य दर्शन जैसे गूढ़ विषय का विकास ही नहीं कर सकता। दर्शन के निर्माण और विकास दोनों के लिए शिक्षा आवश्यक है तथा शिक्षादर्शन को इस प्रकार प्रभावित करती है जो नीचे दिया गया है :

१.  शिक्षा दर्शन के निर्माण की आधारशिला है :

                                                                           दर्शन जैसे गूढ़ विषय के सिद्धांतों के निर्माण विकास के लिए उच्च मानसिक शक्तियों की आवश्यकता होती है जैसे अवलोकन चिंतन मनन आदि जो शिक्षा के द्वारा ही विकसित हैI शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य को भाषा का ज्ञान होता है और भाषा के माध्यम से ही विचार संभव होते हैं और विचारों को अभिव्यक्ति मिलती है।

२.  शिक्षा दर्शन को गतिशील /जीवित रखती है :

                                                                              शिक्षा उच्च मानसिक शक्तियों का विकास कर के मनुष्य को नई समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनातीहै। दार्शनिक इन नई समस्याओं का हल ढूंढने में नए सिद्धांतों का निर्माण करतेहैं। इस प्रकार व सिद्धांत जो जीवन में उपयोगी होते हैंI शिक्षक द्वारा प्रसारित किए जाते हैं और जो क्योंकि नहीं होते हैं उनको त्याग दिया जाता है। इस प्रकार शिक्षा दर्शन को गतिशील रखती है और दर्शन को विकसित करती रहती है। मृत्यु के उपरांत भी शिक्षा ही वह माध्यम है जो उस ज्ञान को सुरक्षित रखता है, जीवित रखता है और आगे आने वाली नई पीढ़ी को स्थानांतरित भी करता है।


३.  शिक्षा दार्शनिक सिद्धांतों को मूर्त रूप प्रदान करती है:
                                                                                             दर्शन इस ब्रह्मांड तथा इसमें रहने वाले मानव जीवन की व्याख्या करता है और मानव जीवन के अंतिम लक्ष्य को चिन्हित करता   है। अब उन लक्ष्यों की प्राप्ति कैसे की जाए जो शिक्षा द्वारा ही संभव होता है। इस प्रकार शिक्षा दार्शनिक विचारों तथा सिद्धांतों को मूर्त रूप प्रदान करती है।
श्री रविंद्रनाथ टैगोर के दार्शनिक सिद्धांतों का मूर्तरूप विश्वभारती में देखा जा सकता है।


४. शिक्षा जीवन की नई समस्याओं से परिचित भी कराती है:

                                                                                               मनुष्य का जीवन परिवर्तनशील है और इस जीवन में नित्य नई समस्याएं आती रहती हैं और शिक्षा इन समस्याओं को मनुष्य से परिचित कराती है और मनुष्य दर्शन का सहारा लेकर अपनी इन समस्याओं का हल ढूंढता है। इस प्रकार नए- नए दर्शन का भी जन्म होता रहता हैI इस प्रकार शिक्षा दर्शन से प्रभावित होती रहती है।

५.  निष्कर्ष :
                     अतः उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा दर्शन को किस प्रकार प्रभावित करती है। किसी भी समाज की शिक्षा उस समाज के दार्शनिक चिंतन के अनुरूप स्वरूप धारण करती है और उसी प्रकार दर्शन पर भी शिक्षा का प्रभाव पड़ता है। दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य शिक्षा की विधियांँ पाठ्यक्रम अनुशासन निश्चित होता है। अतः शिक्षा दर्शन के सिद्धांतों को मूर्त रूप प्रदान करती हैI इस प्रकार शिक्षा और दर्शन एक दूसरे से संबंधित हैI एक दूसरे पर आश्रित हैं तथा एक दूसरे के बिना नहीं चल सकते।

शिक्षा का अर्थ(Meaning of Education):

                                                                     शिक्षा एक व्यापक शब्द है या विभिन्न अर्थों के प्रयोग में किया जाता है साधारणतया शिक्षा शास्त्री शिक्षा शब्द का प्रयोग 3 अर्थों में करते हैं:

(१)  विद्यालय में दी जाने वाली सुनियोजित शिक्षा

(२)  व्यवहारकापरिमार्जनकरनेवालीसततशिक्षा

(३) व्यापक और सही अर्थों में समाज का पथ प्रदर्शन करने वाली अनुवर्क शिक्षा प्रक्रिया।

नि:संदेह शिक्षा वही सही और उचित है जो मनुष्य को पशुविक कृतियों से ऊंचा उठा कर  और सामाजिक प्राणी बनाते हैं और शिक्षा के वास्तविक अर्थ को समझने के लिए शिक्षा के विभिन्न अर्थों को समझना आवश्यक होगा।


शिक्षा का शाब्दिक अर्थ :

                                               शिक्षा शब्द अंग्रेजी भाषा के  Education का पर्याय है Education शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के Educatum शब्द से हुई है| अतः एजुकेशन का शाब्दिक अर्थ है “अंदर को बाहर लाना”|

अर्थात प्रत्येक बालक के अंदर जो जन्मजात प्रवृत्तियां होती हैं उनका विकास करना एजुकेशन का अर्थ कहलाता है| EDUCATION शब्द लैटिन भाषा के ‘Educare' शब्द से भी प्रचलित है जिसका अर्थ है “Leadout” आगे बढ़ाना|

इसी प्रकार एक शब्द और है “Educere” जिसका अर्थ है Proplusion from the internal to external” अर्थात आंतरिक का बाहर की ओर प्रक्षेपण| कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि लैटिन भाषा के तीनों शब्दों के अनुसार शिक्षा का अर्थ है बालक की आंतरिक शक्तियों का पूर्ण विकास|

शिक्षा का संकुचित अर्थ (Narrow meaning of Education) :

शिक्षा का संकुचित अर्थ से तात्पर्य है बालक को विद्यालय में दी जाने वाली एक निश्चित योजना के अनुसार एक निश्चित समय तक निश्चित पाठ्यक्रम के आधार पर दी जाने वाली शिक्षा।
Dr. J.S. Machenzie के अनुसार :-
"संकुचित अर्थ में शिक्षा का अभिप्राय हमारी शक्तियों के विकास और उन्नति के लिए चेतनापूर्वक किए गए किसी भी प्रयास से हो सकता है।"

“In narrow sense, education is may be taken to mean any consciously directed effort to develop and cultivate our powers.”

शिक्षा का व्यापक अर्थ (Wider Meaning of Education) :-

                                                                                              व्यापक अर्थ में शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है दूसरे शब्दों में व्यक्ति अपने जन्म से मृत्यु तक जो कुछ भी सीखता है या अनुभव करता है वह सब शिक्षा के व्यापक अर्थ के अंतर्गत आते हैं।

J.S. MACKENZIE के अनुसार "व्यापक अर्थ में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो आजीवन चलती रहती है और जीवन के प्रायः प्रत्येक अनुभव से उसके भंडार में वृद्धि होती है।"

शिक्षा की प्रकृति: (Nature of Education)

                                                                       शिक्षा के अर्थ को और स्पष्ट करने के लिए उसके स्वरूप को समझना आवश्यक होता है यह उस पर संरूपण विचार करेंगे जो निम्न प्रकार से हैं:

() शिक्षा एक सतत एवं व्यापक प्रक्रिया है :
 
                                                                        शिक्षा  केवल  विद्यालय  में  दी जाने वाली निश्चित शिक्षा ही नहीं अपितु विद्यालय से बाहर जीवन पर्यंत तक चलने वाली व्यापक शिक्षा है जिसमें व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक अपने नित्य नए अनुभवों से ज्ञान अर्जित करता रहता है।

() शिक्षा गतिशील प्रक्रिया के रूप में :

                                                                   शिक्षा स्थिर ना होकर एक गतिशील प्रक्रिया है जो बालक को अपने देशकाल और परिस्थिति के अनुसार सदैव प्रगति के पथ पर अग्रसर रखती है जैसे समाज में कोई भी परिवर्तन होता है तो शिक्षा के स्वरूप में भी परिवर्तन आ जाता है।

Forms of Education:

शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया :
                                              प्रमुख शिक्षाशास्त्री Adems ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “Evaluation of Education Theory” में शिक्षा को एक द्विमुखी प्रक्रिया बताया।उनके अनुसार शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करता है जिससे उसके व्यवहार में परिवर्तन होता है।


शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया
                                               शिक्षा शास्त्री John Dewey ने Adems के अनुसार शिक्षा को द्विमुखी प्रक्रिया ना मानकर त्रिमुखी प्रक्रिया माना है। उनका कहना है कि शिक्षा की प्रक्रिया में अध्यापक और शिक्षार्थी के बीच अंतरक्रिया का कोई ना कोई आधार अवश्य होता है और वह आधार है "समाज”|
समाज में रहकर ही बालक का विकास हो सकता है।
समय ही यह तय करता है कि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार बालक को कौन कौन विषय बताए जाने चाहिए। इस प्रकार त्रिमुखी प्रक्रिया में शिक्षक और शिक्षार्थी के अलावा एक तीसरा तत्व भी है जिसे पाठ्यक्रम कहते हैं।
                  TEACHER              

STUDENT                     SYLLABUS

शिक्षा एक बहुमुखी प्रक्रिया:

                                                आधुनिक समय में शिक्षा की अवधारणा को व्यापक रूप में स्वीकार किया गया जिसमें शिक्षा केवल विद्यालय व पाठ्यक्रम तक ही सीमित नहीं है उसमें उसके सामाजिक आर्थिक और मनोवैज्ञानिक क्रिया कलापों का भी बहुत महत्व है। विद्यालय के अलावा औपचारिक तथा अनौपचारिक, निरौपचारिक साधनों को भी शिक्षा का साधन माना गया है। स्वअध्ययन करने के लिए या कामकाजी रोजगार युक्त विद्यार्थियों के लिए दूरस्थ शिक्षा, अंशकालिकशिक्षा, पत्राचारशिक्षा प्रमुख विश्वविद्यालय जैसे विभिन्न संस्थाओं एवं सेवा केंद्रों पर बल दिया जा रहा है। इस प्रकार शिक्षा से औपचारिक ना होकर बहू प्रक्रिया बन गई है।


शिक्षा की परिभाषाएँ (Definitions of Education):-

                                                           विवेकानंद: "शिक्षा मानव में निहित दैवीय पूर्णता की अभिव्यक्ति हैI"
“Education is the manifestation of divide perfection already in man.”

महात्मागांधी:     "शिक्षा से मेरा अभिप्राय है बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा में पाए जाने वाले सर्वोत्तम गुणों का सर्वांगीण विकासI"

रविंद्रनाथटैगोर: "सर्वोत्तम शिक्षा वह है जो हमें सूचना ही नहीं देती वरन संपूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती हैI"

शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education):

                                                                      शिक्षा विज्ञान है? अथवा कला?  अन्य सामाजिक विषयों के समान शिक्षा के संबंध में भी यह प्रश्न उठता है कि शिक्षा कला है या विज्ञान ? कुछ शिक्षाशास्त्री शिक्षा को एक विज्ञान मानते हैं तो कुछ इसे कला के रूप में स्वीकार करते हैं। कुछ शिक्षाशास्त्री ऐसे भी हैं जो ना तो इसे कला मानते हैं और ना विज्ञान क्योंकि शिक्षा के विशेषज्ञ सैद्धांतिक स्तर पर शिक्षा के उद्देश्य एवं पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियों आदि नियमों का जब निर्धारण करते हैं तब वह वैज्ञानिक विधियों का सहारा लेते हैं। इसीलिए शिक्षा को विज्ञान के अंतर्गत रखा जाता है और शिक्षा एक कला भी है क्योंकि इसमें शिक्षक अपने विचारों आदर्शों के अनुसार बालक के मन पर विभिन्न प्रकार के विचार अंकित करता है शिक्षक अपने कार्य में रचना, सृजन और निर्माण भी करता है क्योंकि शिक्षा में पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियां बनाई जाती है इसमें बालक के रुचि एवं ज्ञान को भी ध्यान में रखा जाता है और उन्हें कलात्मक ढंग से व्यवहार में लाया जाता है इसलिए शिक्षा को कला भी कहा गया है।


शिक्षा के प्रकार / रूप (Types/Forms of Education):

व्यवस्था विषय और प्रभाव आदि की दृष्टि से शिक्षा के अनेक रूप हैं :


 (1)  औपचारिक या नियमित शिक्षा : जो शिक्षा योजनाबद्ध तरीके से विद्यालय में प्रदान की जाती है उसे औपचारिक शिक्षा कहते हैं।

(2)  अनौपचारिक  या अनियमित शिक्षा:

                                                                  जो शिक्षा आकस्मिक रूप से निरंतर चलने वाली स्वाभाविक रूप से व्यक्ति को प्रभावित करती है जिसकी कोई निश्चित योजना नहीं होती है उसे अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं।

(3)  निरौपचारिक शिक्षा:
                                           यह शिक्षा ना तो औपचारिक की भांति विद्यालय तक सीमित है और ना अनौपचारिक शिक्षा की भांति आकस्मिक रूप से चलती है निरौपचारिक शिक्षा बहुत लचीली और घर बैठे प्राप्त की जा सकती है इस प्रकार उपर्युक्त तीनों प्रकार के शिक्षा एक दूसरे के पूरक हैं और समाज में अपना-अपना महत्व रखती हैंI

(4)  प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्षशिक्षा :

(i)   प्रत्यक्षशिक्षा :
                              प्रत्यक्ष शिक्षा उसे कहते हैं जिसमें शिक्षक और बालक आमने- सामने बैठकर निश्चय योजना के अनुसार विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। इसमें बालक शिक्षक के संपर्क में रहने के कारण शिक्षक के व्यक्तित्व से प्रभावित होता है और शिक्षक को अपने बालक के गुणों व अवगुणों का भी परिचय मिलता है।

(ii) अप्रत्यक्षशिक्षा :
                                 अप्रत्यक्ष शिक्षा में अप्रत्यक्ष साधनों के प्रयोग से शिक्षा स्वतंत्र वातावरण में संचालित होती है। इसमें सिखाने वाला समाज के अन्य व्यक्ति, बालक को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने के लिए कोई ज्ञान नहीं देते बल्कि उनके विचारों एवं आचरण से बालक स्वयं ही सीखते रहते हैं।


(5)  सामान्य व विशिष्ट शिक्षा :

(i) सामान्य शिक्षा :
                               सामान्य शिक्षा व शिक्षा है जो किसी सभ्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक होती है। यह मनुष्य के मानवीय गुणों का विकास करती है  और मनुष्य का सामाजिकरण करके उसे देश का योग्य नागरिक बनाती है।
(ii)  विशिष्ट शिक्षा :
                               यह शिक्षा समाज के विभिन्न व्यक्तियों को विशेष उद्देश्य को सामने रखकर दी जाती है। इसके द्वारा मनुष्य को किसी विशिष्ट कार्य या विशिष्ट व्यवसाय के लिए तैयार किया जाता है। इस शिक्षा के द्वारा राष्ट्र के लिए कुशल, कामगार तैयार किए जाते हैं इसलिए इसे व्यवसायिक शिक्षा भी कहा जाता है।


(6)  वैयक्तिक वा सामूहिक शिक्षा (Individual & Collective Education) :

(i)   वैयक्तिकशिक्षा(Individual Education): 
                                                                            वैयक्तिक शिक्षा उसे कहते हैं जो बालक की रुचियो,  आवश्यकताओं, क्षमताओं के अनुकूल होती है। इसमें एक समय में एक अध्यापक एक या दो छात्रों को ही शिक्षित करता है यह शिक्षा व्यक्तिगत विभिन्नता पर आधारित होती है।

(ii)  सामूहिक शिक्षा(Collective Education): 
                                                                               सामूहिक शिक्षा में एक अध्यापक एक समय में अनेक छात्रों को पढ़ाता है। कक्षा शिक्षा सामूहिक शिक्षा का ही रूप है। इस शिक्षा पद्धति में समय और शक्ति दोनों की बचत होती है और बच्चों में सामाजिक गुणों का विकास होता है।

(7)   सकारात्मक तथा नकारात्मक शिक्षा :

(i)  सकारात्मकशिक्षा :
                                     सकारात्मक शिक्षा में बालक अध्यापक के कथन अनुसार ज्ञान को ग्रहण करता है। वह स्वयं के अनुभवत था तर्क को कोई स्थान नहीं देता। इस तरह के ज्ञानो में अध्यापक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
(ii)  नकारात्मक शिक्षा :
                                           नकारात्मक शिक्षा का तात्पर्य उस शिक्षा से है जिसे बालक स्वयं के अनुभव एवं क्रियाओं के आधार पर उसके ज्ञान को अर्जित करता है और अध्यापक उनका हक केवल मार्गदर्शन करते हैं। इसमें बच्चों को स्वयं सीखने के अवसर प्राप्त होते हैं और उनका सीखा हुआ ज्ञान स्थाई होता है।

शिक्षा के साधन/ अभिकरण(Agency of Education) :
                                                                                             समाज में विभिन्न प्रकार की संस्थाओं में शिक्षा देने का काम किया जाता है। इन संस्थाओं को शिक्षा का साधन भी कहा जाता है। साधन शब्द अंग्रेजी भाषा के एजेंसी शब्द का हिंदी रूपांतरण है। शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति इन्हीं साधनों के माध्यम से होती है। शिक्षा शास्त्रियों ने अलग अलग तरीके से शिक्षा के साधनों का वर्गीकरण किया है।

शिक्षा के साधन का वर्गीकरण(Classification of the Agencies of Education):
                                                                                                                                 शिक्षा के साधनों को निम्न तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है :

(१) औपचारिक या साविधिक साधन(Formal Agency) :

(२)  अनौपचारिक या अवविधिक साधन(Informal Agency)

(३)  निरौपचारिक साधन (Non–Formal Agency)

(१) औपचारिक या साविधिक साधन (Formal Agency):  यह वह साधन होते हैं जिसके द्वारा शिक्षा संबंधित सभी कार्य एक निश्चित योजना के अनुसार संपन्न किए जाते हैं। जैसे शिक्षा का कार्य करने का स्थान, शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, विधियाँ, शिक्षा प्रदान करने वाले व्यक्ति शिक्षक आदि सभी की योजना पहले से ही निश्चित कर ली जाती है। शिक्षा के औपचारिक साधन है:

(i) पाठशाला:
                        शिक्षा के औपचारिक साधनों में विद्यालय का स्थान प्रमुख है यहां एक चहार दीवारी के अंदर शिक्षा संबंधित सारे कार्यक्रम पूर्व निश्चित योजना के अनुसार संपादित किए जाते हैं।

(ii)  पुस्तकालय/वाचनालय :
                                                    यहां पर शिक्षार्थी के लिए अपनी पाठ्य विषय संबंधी सभी पुस्तकों के अतिरिक्त अनेक प्रकार के संदर्भित ग्रंथ रखे होते हैं और अनेक प्रकार के दैनिक या मासिक पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने का अवसर मिलता है। इससे विद्यार्थियों को बहुत ज्ञान अर्जन होता है संग्रहालय में विभिन्न प्रकार के ऐतिहासिक लेखों, भौगोलिक तथ्यों, कलाकृतियों का संग्रह भी किया जाता है। जिनको देखने से बच्चों का ज्ञानात्मक तथा सामाजिक विकास होता है।

(iii)   कलाकक्ष (Art Gallery):
                                                  इसमें विभिन्न प्रकार की कलाकृतियां व पेंटिंग को सजाकर रखा जाता है इनको देखकर बच्चों के अंदर साहित्य कला में रुचि बढ़ती है।

(iv) व्यायामशाला
                                 शारीरिक विकास के लिए समाज में व्यायामशाला की व्यवस्था की जाती है यहां सबको स्वस्थ बनाने की शिक्षा प्रदान की जाती है।

औपचारिक या साविधिक शिक्षा के गुण :
                                                                   इन साधनों द्वारा शिक्षा की प्रक्रिया एक पूर्व निश्चित योजना के अनुसार दी जाती है। इन साधनों का एक निश्चित लक्ष्य होता है और यह साधन प्रत्यक्ष रूप से बालक को प्रभावित करते हैं।
John Dewey ने कहा है- “औपचारिक शिक्षा के बिना जटिल समाज के सारे साधनों एवं सिद्धियों को स्थानांतरित करना संभव नहीं है|” इस कथन के अनुसार मनुष्य की शिक्षा में साविधिक शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है।

अनौपचारिक या अवविधिक साधन :
                                                             शिक्षा के अनौपचारिक साधन वह है जिसमें कोई पूर्व और निश्चित योजना नहीं होती है यह बालकों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से प्रभावित करते हैं। इन साधनों को हम दो भागों में विभाजित करके अध्ययन कर सकते हैं:

(i)  व्यवसायिक साधन

(ii) अव्यवसायिक साधन

(i) व्यवसायिक साधन:
                                    जैसे -प्रेस, आकाशवाणी रेडियो, दूरदर्शन, चलचित्र, सिनेमाघर, नाट्यशाला,  पत्र-पत्रिका इत्यादि।
(ii) अव्यवसायिक साधन :
                                           जैसे -परिवार, खेल, समुदाय, समाज,  सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाएं, राजनीतिक संस्थाएं, प्रौढ़ शिक्षा केंद्र, स्काउटगाइड, यात्राएं इत्यादि।

अनौपचारिक साधन के गुण:

1.अवविधिक साधनों का संबंध शिक्षा के व्यापक रूप से है।

2.यह शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है और संपूर्ण विश्व की शिक्षा प्राप्त करने का अवविधिक साधन है।

3.शिक्षा के लिए यह साधन असीमित हैं। इससे उपयोगी व्यवहारिक शिक्षा की प्राप्ति होती है जिससे बालक अपने जीवन की समस्याओं को आसानी से हल कर सकता है।

दोष :

1.अनौपचारिक शिक्षा में कोई पूर्व निश्चित योजना नहीं होती है इन साधनों द्वारा सीमित प्रक्रिया में समय बहुत अधिक लगता है जबकि औपचारिक साधन में शिक्षा पूर्ण निश्चित योजना के अनुसार दी जाती है जिससे निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

2.इससे जीवन में छात्र अपने पैरों पर खड़े होने में समर्थ हो सकते हैं।

3.इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार के साधन का अलग-अलग महत्व है।

4.दोनों प्रकार के साधन एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों घनिष्ठ रूप से एक दूसरे से संबंधित हैं।

इसीलिए मनुष्य के जीवन में दोनों प्रकार के शिक्षा प्राप्त करना वांछनीय है।

निरौपचारिक साधन:

आधुनिक समय में शिक्षा के अभीकरणों का एक और वर्गीकरण किया जा चुका है।
जो निरौपचारिक अभिकरण के रूप में हमारे सामने आया है।
इस अधिकरण में औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार के अभिकरणो के गुण पाए जाते हैं।
निरौपचारिक अभिकरण ना तो पूर्ण रूप से संगठित और नियमवध होते हैं और ना ही पूर्ण रूप से असंगठित और स्वतंत्र।

वास्तव में यह अभिकरण अपने लचीलापन के कारण बहुत अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं।
इसके अंतर्गत निम्न प्रकार की शिक्षाएं प्रदान की जाती हैं :  जैसे प्रौढ़शिक्षा, सततशिक्षा, अंशकालीनशिक्षा, पत्रचार एवं दूरस्थ शिक्षा और इनके केंद्र एवं संस्थाएं।

विशेषताएँ :

                     इसकी विशेषताएं निम्न है :

1.निरौपचारिक अभिकरण आधुनिक दूरसंचार के साधनों द्वारा शिक्षा देने का कार्य करता है।

2.सेटेलाइट, दूरदर्शन, आकाशवाणी, ऑडियो-वीडियो टेप, कंप्यूटर, इंटरनेट, ईमेल, फोन, पत्र-पत्रिकाएं, पत्राचार यह सभी इनके प्रमुख साधन है।

3.यह अभिकरण ना तो पूर्णतया पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अंतर्गत होते हैं ना ही पूर्णतया आनियोजित।

4.निरौपचारिक शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम व परीक्षा निश्चित होती है परंतु छात्रों के प्रवेश शिक्षण और अनुशासन
उदार और लचीले होते हैं।

5.निरौपचारिक अभिकरण से शिक्षा प्राप्त करने में स्थान और समय का प्रतिबंध नहीं होता है किसी भी स्थान पर घर पर बैठकर किसी भी समय इसके द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

6.निरौपचारिक शिक्षा उन लोगों के लिए वरदान है जो किसी कारणों से शिक्षा से वंचित रह गए हैं।

7.रोजगार मेले के छात्र और कामकाजी महिलाएं आदिवासी और पहाड़ी क्षेत्र के लोग भी अपने घर पर काम करते हुए भी अपनी इच्छा अनुसार ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

8.वर्तमान युग में शिक्षा की बढ़ती हुई मांग की पूर्ति करने में और  कम लागत में लाखों विद्यार्थियों को शिक्षित करने का महत्वपूर्ण कार्य साधन कर रहा है।

परिवार और शिक्षा (Family and Education):
                                                                           परिवार शिक्षा का अनौपचारिक और सक्रिय साधन है।
शिक्षा के अनौपचारिक साधनों में इसका सर्वप्रमुख स्थान है। घर या परिवार मानव समाज की प्राचीनतम एवं आधारभूत इकाई है। घर ही वह स्थान है जहां पर घनिष्ठ प्रेम की भावनाओं का विकास होता है।

परिवार की परिभाषा:
                                    मैकाइवर और पेज  "परिवार एक ऐसा समूह है जो पर्याप्त रूप से लैंगिक संबंध पर आधारित है तथा जो इतना स्थाई होता है जिसके द्वारा बालकों के जन्म तथा पालन पोषण की व्यवस्था हो जाती है"

गृह शिक्षा की विधियाँ (Method of Home Teaching):
                                                                                          गृह या परिवार की शिक्षा विधि तथा पाठ्यवस्तु इस प्रकार की हो जिससे बालक का सर्वांगीण विकास स्वाभाविक रूप से हो सके।

(१)  खेल विधि:
                          खेल बालक की सामान्य प्रकृति है खेल में बालक की सहज रुचि होती है और आत्म प्रकाशन के लिए अवसर मिलता है।

(२)   इंद्रिय प्रशिक्षण विधि:  
                                               बालक की शिक्षा में कमेंट्री और तथा ज्ञानेंद्रियों का महत्वपूर्ण स्थान है।
मांटेसरी के अनुसार "ज्ञानेंद्रिय ज्ञान का द्वार है।"
ज्ञानेंद्रीय बालक को बाह्य जगत की वस्तुओं का ज्ञान कराती है।

(३) भाषा द्वारा शिक्षा
                                     बालक घर के सदस्यों की भाषा का अनुकरण करता है और उसी प्रकार स्वरों का उच्चारण करता है और धीरे-धीरे शब्द बोलना सीखता है।

(४)  कहानी विधि
                                    बालक को कहानी सुनने में बहुत रुचि रहती है। उन्हेंछोटी- छोटी कहानियां सुनानी चाहिए कहानियां धार्मिक पौराणिक तथा शिक्षाप्रद होनी चाहिए जो कि नैतिकता सामाजिक गुणों के विकास में सहायक हो। बालक के प्रथम 6 वर्षों तक बालक का सामाजिक वातावरण प्रमुख रूप से परिवार ही होता है।
रूसो के अनुसार " शिक्षा जन से प्रारंभ होती है और माता उपयुक्त परिचारिका है।"
पेस्टोलॉजी के अनुसार "परिवार, प्यार तथा स्नेह का केंद्र, शिक्षा का सर्वोत्तम स्थान तथा बालक का प्रथम स्कूल है।
“ Home – a center  of love and affection, is the best place for education and the first school of the child.”

फ्रेवल के अनुसार " माताएं बालक की आदर्श गुरु होती है तथा परिवार द्वारा प्राप्त हुई अनौपचारिक शिक्षा सबसे अधिक प्रभावशाली और प्राकृतिक होती है”

“Mothers are the ideal teacher and the informal education given by home is most effective and natural.”

परिवार के कार्य( Function of Family) :

शिक्षा संस्था के रूप में बालक के विकास में परिवार को मुख्य रूप से निम्न कार्य करने चाहिए :
  1. बालक में शारीरिक विकास करना परिवार का मुख्य कार्य है। इसके लिए पौष्टिक भोजन, व्यायाम साफ-सुथरा वातावरण आदमी पर ध्यान देना परिवार का कार्य है।
  2. बालक को मानसिक विकास के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करना।
  3. बालक के संवेगात्मक विकास पर भी परिवार का प्रभाव महत्वपूर्ण होता है।
  4. बालक का सामाजिक विकास परिवार रूपी सूक्ष्म समाज पर निर्भर करता है।
  5. परिवार में रहकर बालक अपनी मातृभाषा आसानी से सीखता है।
  6. बालक की जन्मजात प्रवृत्तियों का विकास परिवार में ही संभव है।
  7. बालक के व्यक्तित्व का विकास का बीजारोपण परिवार में ही होता है।
  8. बालक में नैतिक तथा चारित्रिक गुणों का विकास करने में परिवार की अहम भूमिका रहती है।
  9. आर्थिक सिद्धांतों की शिक्षा स्वाभाविक रूप से परिवार द्वारा बालक सीखता है।
बालक की शिक्षा में परिवार का महत्व (Importance of family in the education of child):

1.परिवार एक ऐसी आधारभूत संस्था है जिसका बालक की शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान है।

2.नवजात शिशु अपने जीवन की यात्रा परिवार से ही प्रारंभ करता है तथा परिवार में ही रहकर वह विभिन्न प्रकार की शिक्षा प्राप्त करता है। जिनकी आवश्यकता उसे जीवन की यात्रा के पग-पग पर पड़ती है।

3.बालकों में सही संस्कारों और आदतों का सूत्रपात करने का उत्तरदायित्व परिवार का ही है।

4.वे बच्चे जो एक ही विद्यालय में पढ़ते हैं उनमें सामान्य ज्ञान, रुचियों, व्यवहार और विचार में परिवार के कारण ही अंतर पाया जाता है।

5.बालक पर परिवार अपना स्थाई प्रभाव अंकित करता है।

6. बालक को घर से ही अच्छे-बुरे गुणों की शिक्षा मिलती है।

7. लाॅरी के अनुसार "शैक्षिक इतिहास के सभी स्तरों पर परिवार बालक की शिक्षा का प्रमुख साधन है।"

“At all stages of education history, the family is the chief agency in the education of the young”.

विद्यालय और शिक्षा (School and Education):

शिक्षा के औपचारिक साधनों में विद्यालय भी एक साधन है। विद्यालय का शाब्दिक अर्थ है विद्या+आलय अर्थात विद्या का मंदिर।
School शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के Skhole or Schola से मानी जाती है जिसका अर्थ है Leisure (अवकाश) । ग्रीक देशों में शुरू में ऐसे स्थानों को विद्यालय कहा जाता था जहां अवकाश के समय में एकत्रित होकर कार्य किया जाता था लेकिन बाद में यही स्थान सुनियोजित ढंग से शिक्षा प्रदान करने वाले केंद्र के रूप में बदल गए।

परिभाषा:
                        बालकृष्ण जोशी के शब्दों में सारांश में एक सौ संचालित विद्यालय एक सुखी परिवार एक पवित्र मंदिर एक सामाजिक केंद्र लघुरूप में एक राज्य और मनमोहक वृंदावन है जिसमें सभी बातों का सुंदर मिश्रण होता है।
रॉस के अनुसार " विद्यालय सभ्य मनुष्य द्वारा इस उद्देश्य से संस्थापित संस्थाएं हैं जिनसे समाज में सुव्यवस्थित एवं योग्य सदस्यता के लिए बालकों की तैयारी में सहायता मिल सके"

विद्यालय की आवश्यकता एवं महत्व (Need and Importance of School):

वर्तमान समय में विद्यालय के महत्व को निम्न बिंदुओं से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है:
1.विद्यालय बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए एक विशिष्ट वातावरण प्रदान करता है। ऐसा सुव्यवस्थित वातावरण बालक को विद्यालय के अतिरिक्त परिवार या अन्य किसी भी स्थान पर प्राप्त नहीं हो सकता।
डीवी के अनुसार “विद्यालय एक विशिष्ट वातावरण है जहां विशिष्ट प्रकार का जीवन और विशिष्ट प्रकार की क्रियाएं और कार्य राष्ट्र की आध्यात्मिक शक्ति को एकत्रित करना उसके ऐतिहासिक क्रम को बनाए रखना आदि कार्य किए जाते हैं और इन सब का उद्देश्य एक जीवन आदर्श के अनुरूप बालक का विकास करना होता है।
वर्तमान युग विज्ञान और तकनीकी का है। आज छोटे- छोटे कार्य करने के लिए भी विशिष्ट ज्ञान और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है जोकि विद्यालयों में ही संभव है।

2.समाज की जटिलता ने मनुष्य को बहुबन्धी बना दिया है। अब माता-पिता के पास इतना समय नहीं कि बच्चों की देख-रेख कर सके अब यह कार्य विद्यालय द्वारा ही किया जा रहा है।

3.प्रत्येक समाज की अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत होती है और विद्यालय इसका संरक्षण प्रसार और संवर्धन करते हैं।

4.किसी भी समाज के आदर्शों और विचार धाराओं का प्रचार उस समाज में विद्यालय के माध्यम से ही किया जाता है।

5.विद्यालय एक सक्रिय संगठन है जिसमें विभिन्न वर्गों व समुदायों से आए हुए छात्र व अध्यापक कर्मचारी इत्यादि होते हैं जो विद्यालय के वातावरण को एकरूपता प्रदान करते हैं जिसमें बालकों में एकता और हम भाव का विकास होता है।


विद्यालय के कार्य(Function of School):
                                                                     बालक के शारीरिक बौद्धिक भावात्मक विकास संबंधी कार्य [Function relating physical intellectual and emotional development of a child].
1.चरित्र विकास संबंधी कार्य [Function Relating character Development].

2.सांस्कृतिक विकास संबंधी कार्य [Function relating Cultural Development].

3.व्यवसायिक शिक्षा संबंधी कार्य [Function relating Vocational Education].

4.विद्यालय के सामाजिक विकास संबंधी कार्य [Function relating Social Development] :
(i) आदर्श नागरिकों के निर्माण का कार्य

(ii) कुशल नेतृत्व के निर्माण का कार्य

(iii) सामाजिक प्रगति का कार्य

समुदाय और शिक्षा(Community & Education) :
                                                                                  समुदाय शिक्षा का औपचारिक साधन है बालक के विकास में परिवार की तरह समुदाय भी अत्यंत महत्वपूर्ण साधन है बालक जब बड़ा होता है तो वह परिवार के सीमित दायरे से निकल कर समुदाय और समाज के संपर्क में आता है शिक्षा के क्षेत्र में समुदाय और समाज को एक ही रूप में लिया जाता है क्योंकि दोनों के शैक्षिक प्रभाव एक जैसे ही होते हैं।

समुदाय का अर्थ व्यक्तियों के ऐसे समूह से है जो मिलकर एक साथ एक निश्चित भू-भाग में रहते हैं।
यह आपस में एक दूसरे की सहायता करते हुए अपने अधिकारों का उपयोग करते हैं तथा समूह के व्यक्तियों की सामान्य आवश्यकताओं को पूरा करने में सहयोग करते हैं।

परिभाषा :
                            प्रोफेसर किंग्स लेडेविस के अनुसार "समुदाय एक ऐसा सबसे छोटा क्षेत्रीय समूह है जिसके अंतर्गत सामाजिक जीवन के सभी पक्ष सम्मिलित हो सकते हैं"

बोगार्डिस के अनुसार " एक समुदाय एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसमें कुछ अंशों में हम की भावना पाई जाती है तथा जो निश्चित क्षेत्र में रहता हैI"
“A community is a social group with some degree if we feeling and living in a given area.”

समुदाय की प्रमुख विशेषताएँ (Chief Characteristics of Community):

1.समुदाय व्यक्तियों का विशाल समूह होता है।

2.इसका भौगोलिक क्षेत्र निश्चित होता है।

3.समुदाय का विकास स्वत: होता है।

4.समुदाय के उद्देश्य व्यापक होते हैं।

5.समुदाय अपेक्षाकृत आत्म निर्भर होते हैं।

6.समुदाय में सामान्य नियम व्यवस्था होती है तथा लोगों का सामान्य जीवन होता है।

7.समुदाय के आधार के रूप में सामुदायिक भावना का अधिक महत्व होता है।

8.समुदाय में स्थायित्व पाया जाता है।
समुदाय के शैक्षिक कार्य (Educational Function of Community):
1.विद्यालयों का निर्माण (Establishment of School)

2.विद्यालयों पर नियंत्रण (Control on School)

3.पाठ्यक्रम का निर्माण (Construction of Curriculum)

4.धन की व्यवस्था (Arrangement of Finance)

5.विशिष्ट प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था (Provision of special type of education)

6.व्यवसाय तथा औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था (Provision of Vacational and industrial education)

7.शिक्षा के अनौपचारिक साधनों की व्यवस्था (Provision of Informal Education)


       राष्ट्रीय एकता (NATIONAL INTEGRATION)

 राष्ट्रीय एकता का अर्थ:
                                                           राष्ट्रीय एकता का सामान्य अर्थ है देश के विभिन्न धर्मो जातियों और भाषाओं के व्यक्तियों में देश के कल्याण के लिए देश प्रेम और देशभक्ति की भावनाओ में एकता स्थापित करना। इस प्रकार देश में निवास करने वाले देशवासियों की आंतरिक एवं भावनात्मक एकता को राष्ट्रीय एकता कहते हैं।
राष्ट्रीय एकता एक ऐसी भाव एवं ऐसी शक्ति है जो समस्त देशवासियों को अपने व्यक्तिगत विभिन्नताओं को त्याग कर राष्ट्र कल्याण के लिए प्रेरित करती है। राष्ट्र के समस्त देशवासियों में नागरिकों में मैं की भावना का नहीं हम की भावना का विकास ही राष्ट्रीय एकता है।
परिभाषा:
                            डॉक्टर जे० एस० वेदी के अनुसार  " राष्ट्रीय एकता का अर्थ है देश के विभिन्न राज्यों के व्यक्तियों की आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक एवं भाषा विषयक विभिन्नताओ को वांछनीय सीमा के अंतर्गत रखना और उनमें भारत की एकता का समावेश करना है।"

राष्ट्रीय एकता में बाधाएँ :
                                                           स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात भारत ने अनेक क्षेत्रों में प्रगति की किंतु इतने वर्षों में अनेक विघटनकारी तत्वों ने राष्ट्रीय एकता और अखंडता को नष्ट करने के लिए अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न की जैसे :

(१)  प्रांतीयता(Provincialism) :  
                                                     आज देश की एकता में प्रांतीयता बहुत बड़ी बाधा है। यह बहुत स्वाभाविक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जन्म स्थान से अत्यधिक प्रेम करता है परंतु यह प्रेम जब प्रांतीयता के नाम पर देश को आघात पहुंचाने लगे तब देश की एकता विखंडित हो जाती है। बहुत से प्रांतीय प्रदेश ऐसे हैं जो केंद्र से टकराने के लिए तत्पर रहते हैं कहीं जन-जन को लेकर तो कहीं सीमा को लेकर विवाद खड़े हुए हैं।

उपाय:
              कोई भी राष्ट्रीय प्रांत तभी उन्नति कर सकता है जब तक अपने अपने हित का राग अलापने के बजाय  आपस में भाईचारे के साथ रहे और दूसरे प्रदेश के निवासियों को भी अपने देश का नागरिक माने और मिलकर देश की उन्नति में सहयोग प्रदान करें।
इन विवादों को लेकर आतंकवादियों की गतिविधियों और दुश्मन देश की नजरें देश के लिए खतरा साबित हो रही हैं। अत:  यह आवश्यक है कि हमें अपने देश की एकता और विकास के लिए मिलकर प्रयास करना चाहिए।

(२)  सांप्रदायिकता (Communalism):
                                                                भारत में अनेक प्रकार के संप्रदाय हैं जैसे –हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी इत्यादि।
इन सभी समुदाय विशेष रूप से हिंदू और मुस्लिम संप्रदाय हिंदुओं में भी हरिजन और श्रवण एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। आज राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद इसी संप्रदाय बाधा का उदाहरण है।

उपाय:
             राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है कि जैसे स्वतंत्रता से पहले हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई मिलकर भाई-चारे के साथ देश के दुश्मनों से लड़ते थे और उनको अपने देश से भगा भी दिया था। उसी प्रकार अब संप्रदायिक दंगे समाप्त करके राष्ट्रहित और राष्ट्र विश्वास के लिए सोचे और देश की तरक्की में सहयोग दे।

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